सम्पूर्ण भारत का सबसे अनूठा कंस वध मेला : कंस्सा मार मधुपुरी आए, कंस्सा के घर के घबराए...

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  • Jeevan Mantra

मथुरा 24 नवंबर 2020

कृष्ण और बलराम कंस टीले पर आयोजित होने वाला यह मेला ब्रज का विशेष आकर्षण हैं।

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा कंस को मारने के उपलक्ष्य में मथुरा में यह मेला आयोजित होता है।

इस दिन चतुर्वेदी युवक अपनी–अपनी लाठियों से सुसज्जित होकर कंस टीले तक जाते हैं। वहां कंस के पुतले को नष्ट करके उसके मस्तक को लाकर कंसखार पर नष्ट करते हैं, तदुपरांत विश्राम घाट पर प्रभु को विश्राम देकर पूजन आरती का कार्य सम्पादन करके, कंस वध के दिन की स्मृति को परम्परागत रूप से साकार करते हैं।

इस मेले में मथुरावासी उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं।कार्तिक शु0 10 को होने वाला यह मेला चौबे समाज का प्रमुख मेला है । इसमें कागज का बड़ा कंस का पुतला बनाकर कंस टीले पर ले जाया जाता है- कृष्ण बलराम की सुसज्जित सवारी हाथी पर वहाँ जाती है । चतुर्वेदी समुदाय के सभी नर नारी किशोर युवक वृद्ध राजा महाराजाओं की प्रदत्त अदभुद पोषाकों शस्त्रों विशाल लट्ठों को लेकर उन्माद के साथ नाचते कूदते गाते हुए इसमें भाग लेते हैं । बाहर देश- विदेश मैं कार्यकरत उद्योगी बन्धु भी इस अवसर पर आते हैं । मथुरा के वायु मंडल में इस समय बड़ा आनन्द और उत्साह रहता है । कुछ सांस्कृतिक झांकियों और सजावट रोशनी से भी वर्तमान में मेला का रूप भव्य बना है । कंस का मेला वज्रनाभ काल 3042 वि0 पू0 से है ।  इसमें उद्घोष की जाने वाली साखी भी शौरसेनी प्राकृत से किंचित ही रूपांतरित हैं यथा-'कंस्स बलरम्मा लै आम्मैं सखा सूरसेन '(हम) सूरसेन '।' कंस्सा मारू मधुप्पुरी आए कंसा के घर केह घव्वराए आदि

"छज्जू लाये खाट के पाये मर मर लट्टन धूर (जूर) कर आये कंस के घर के घबराये वाई कंस की दाड़ी लए वाई कंस की मूछें लाये"

"कंसैभार मधुपुरी आये, अगर चन्दन ते अँगन लियासे, गजमुतियन के चौक शपुराये, सब सखान मिल मंगल गाये, कंसा के घर के घबराये, सूरसैन ...सूरसैन...हम सूरसैन...

3114 वि0पू0 मेंदेवाधिदेव सोलह कला परिपूर्ण अवतार श्रीकृष्ण का प्रादुर्भाव हुआ। श्रीकृष्ण के पूर्वज सभी यादव (जादों ठाकुर) मथुरा के माथुर चतुर्वेदियों के परम निष्ठावान भक्त रहे हैं। अन्धक, वृष्णि, कुकर, दाशार्ह भोजक आदि यादवों की समस्म मथुरा में कुकरपुरी (घाटी ककोरन) नामक स्थान में यमुना के तट पर उग्रसेन महाराज के संरक्षण में माथुरों के शपुर में निवास करती थीं। इनकी बड़ी शाखा कुकर शाखा के पौरोहिहत्य के कारण एक शाखा अभी भी ककोर सरदार कही जाती है।

 

श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव वृष्णि शाखा के प्रधान पुरूष थे। महाराज उग्रसैन के भाई देवक की कन्या देवकी का विवाह वसुदेव के साथ किया गया वसुदेवजी अति रूपवान, ज्ञानवान, नीतिज्ञ, व्यवहार कुशल और ब्राह्मण भक्त थे, उन्हीं के सम्पूर्ण गुणों का विकास उनके पुत्रों कृष्ण-बलराम में पूर्ण रूप से हुआ। श्रीकृष्ण पूर्ण पुरूषोत्तम नारायण के अवतार थे, उनकी कथा भागवत आदि सभी पुराणों में कही गई है।

बालक श्रीकुष्ण कंस के भय से जन्मते ही नन्द के गोकुल में पहुँचा दिये गये, तथा दूसरे पुत्र बलराम जो वसुदेव पत्नी रोहिणी से नन्द गोप के घर महावन में उत्पन्न हुए थे- दोनों भाई अत्याचारी कंस से बचकर अनेक मनोहारी लीलायें करते हुए गोकुल में गर्गाचार्य और माथुर शाँडिल्य मुनि तथा धौम्यजी द्वारा प्रारम्भिक जाति कर्मादि संस्कार हुए। पाँच वर्ष गोकुल में रहकर नन्दजीं उन्हें कंस से दूर गोवर्धन, वृन्दावन, काम्यवन, नन्दग्राम के मूल ब्रज क्षेत्र में ले गये।

नन्द के संरक्षण में श्रीकृष्ण-बलराम बारह वर्ष तक रहे। उन्होंने देवपुरी मथुरा के गायों शके चराये जाने के क्षेत्र ब्रज मण्डल में अनेक अद्भुत् लीलाएँ दिखाकर ब्रज के गोप-गोपियों को अपने बस में कर लिया। यद्यपि दोनों भाई ब्रज में अनेक प्रकार के बिहार-क्रीड़ायें करते थे, तो भी उन्हें वारम्बार अपनी जन्मस्थली मथुरा अपने प्रिय माता-पिता और परम पूज्यनीय माथुरों चतुर्वेदी गुरुओं की याद सताती रहती थी। गौड़ीय भक्तों ने उनकी ब्रज निवास काल में मनोव्यथा उत्पन्न करने वाली दशा को "माथुरी विरह अवस्था " कहकर वर्णन .किया है। 12 वर्ष की अवस्था पूर्ण होने पर वे मथुरा के विरह को सहन नहीं कर सके, और तब कंस के आयोजित कपटपूर्ण धनुष यज्ञ महोत्सव को जानते हुए भी अक्रूर के साथ ब्रज का मोह परित्याग कर वे मथुरा आ गये।

इस समय मथुरा के माथुरों और प्रजाजनों ने उनका अभूतपूर्व स्वागत किया इसका वर्णन महात्मा सूरदास जी ने अपने एक पद में बड़े आकर्षक ढंग से किया है- "भूषन बखन विचित्र सजे हैं, सोभित सुन्दर अंग।।

"कर पंकज नफूल की माला, उरभैंटे नन्द नन्द।। "

मथुरा हरखित आजु भई।

ज्यौ चुवती पति आवत सुनि कै, पुलकन अंग मई।।

नव सजि साजि सिंगार सुन्दरी, आतुर पंथ निहारति।

उड़त धुजा तम सुरति विसारै, अंजल उर ने सम्हारति ।

उरज प्रगट महलजन के कलसा, फूले बन तन सारी।

ऊँचे अटनि कंगूरा सोभा, सीस उचाई निहारी।

जाल रंध्र इकटक हरि देखत, किंकिनि कंचन दुर्ग ।

बैंनी लसत महा छवि वारी, महलन चित्रित उर्ग।

बाजत नगर बाजने जहाँ तहाँ टघां धुनि घटियार।

सूर श्याम बनिता लौं चंचल, पग नूपुर झनकार।।

 

मथुरा की गली और राजमार्ग फूलों से सजाये गये, माथुरी नारियाँ अटा अटारियों, गवाक्षों और छज्जों पर सजधज कर उन्हें देखने को बैठ गई। फूलों की बर्षा की गई। यह मेला मथुरा का आज भी सबसे बड़ा साँस्कृतिक महोत्सव है। माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों की टोलियाँ राजसी वस्त्रों से सज्जित होकर मोटे-मोटे लट्ठ लेकर कंस को कूटकर कृष्ण बलराम को साथ लेकर मथुरा नगर में प्रविष्ट होते हैं। अपनी ऐतिहासिक साखियों में वे आनन्द से उन्मत्त नृत्य करते हुए नाचते और गाते हुए कहते जाते हैं "कंसैभार मधुपुरी आये, अगर चन्दन ते अँगन लियासे, गजमुतियन के चौक शपुराये, सब सखान मिल मंगल गाये, कंसा के घर के घबराये, सूरसैन ...सूरसैन...हम सूरसैन...। कृष्ण बलराम तब विश्राम घाट पर आते हैं माथुर चतुर्वेदी मिहारी सर्दारों की गोद में विराजते हैं, और वहाँ विजय आरती की जाती है। वहाँ से वे माथुर महापुरूषों के घर ही जाता हैं। मथुरा में कंस बध से पूर्व नन्द जी के साथ आने पर भी वे माथुरों की बगीचीयों पर ही ठहरे थे। गोपनीय परामर्ष किया था और माथुरों के साथ यमुना स्नान करके रँगभूमि में पधारे थे। दोनों भाइयों का यज्ञोपवीत भी माथुर महर्षियों धौम्य आदि ने ही कराया था। माथुरों के आँगिरस सत्र में यज्ञान्न की याचना माथुरो की वैदिक यज्ञ निष्ठा की दृढ़ता की परीक्षा तथा माथुरी यज्ञपत्नियों द्वारा कृष्ण बलराम की सखाओं समेत मधुर, रसीले, यज्ञान्न से तृप्ति कराने और दोनों भाइयों द्वारा संतुष्ट होकर ब्राह्मणों को बरदान देने की की बात सर्व विदित है जो भागवद् में विस्तार से वर्णित है। श्रीकृष्ण ने माथुरों को तब वरदान दिया था---

 

चे ब्राह्मण वंश जाता, युष्माकं वै सहस्त्रश:।

 

तेषां नारायणे भक्ति भविष्यति कलौ युगे।।

 

जो माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मण ब्राह्मणों के असली कुल में उत्पन्न हुए हैं तथा उनमें जो आप लोगों के हज़ारों पुत्र पौत्र आदि वंशधर हैं उनमें आगे कलियुग में नारायण की उत्तम भक्ति बनी रहेगी। पांडवों का यज्ञोपतीय भी अपने पुत्रों के बाद मथुरा में वसुदेव जी नेही माथुर गुरु धौम्य जी द्वारा कराया था। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार चतुर्वेदी ब्राह्मण नौकोटि श्री कृष्ण बलराम और नन्द जी के साथ ब्रजब्रन्दावन (कामवन) गये थे। वे उनके साथ रहते थे तथा आसुरी उपद्रव होने पर बालक श्री कृष्ण वलराम की रक्षा हेतु नारायण कवच सुदर्शन मन्त्र गो पुच्छ प्रक्षालन आदि कराकर रक्षा प्रयोग करते थे। पुत्रों के यज्ञोपवीत उत्सव में श्रावसुदेव जी ने वेदज्ञ ब्राह्मणों को सम्मान के साथ तृप्ति कर भोजन कराया था। श्री कृष्ण के पुत्र सांव ने सूर्य सिद्धि के बाद माथुरों को भोजन कराया उसमें अनेक पकवान बनाये गये थे।

 

पूपकांश्च विचित्रा वै, मोदकांश्च धृतप्लुता:।

 

पायसं कृशरं चैव दध्यान्नेन समन्वितम्।।

 

माथुरों में इनका आश्रम गर्गतीर्थ तथा ब्रज के भांगरौली में इनकी जागीरदारी थी।

 

यादवों के ज्योतिषी गर्गाचार्य थे। ये राजस्थान (मत्स्य देश) वासी घघ्घर नदी तट वासी थे, किन्तु विद्या उपलब्धि के लिये ये माथुरों के शिष्य बनकर मथुरा मन्डल में रह रहे थे। अपनी रचना गर्ग संहिता में ब्रह्म भक्ति के साथ इनने श्री यमुना महाहरानी का पंचांग स्तोत्र पटल सहस्त्रनाम कवच आदि माथुरों का प्रदत्त स्थापित किया है। यमुना सहत्रनाम में भी इनने अपने गुरुओं को

 

सुद्विजायैनम:, मथुरा तीर्थ वासिन्यै नाम: विश्रान्त वासिन्यैनम: असिकुन्ड गतायै नाम: ।।247।।

 

कहकर आदणीय पद दिया है। कंस मारकर श्री कृष्ण वलराम कुबिंद नाम के ब्राह्मण के घर गये थे। माथुरों में "कोवीराम के " वंशजों का परिवार अभी भी वर्तमान है। माथुर कलीय नाग (कश्यप वंशज कद्रु पुत्रों) नाग कुलों के भी पुरोहित और पूजित थे। यह वंश मथुरों के "कोरनाग तिवारी" नाम से ख्याति प्राप्त है। माथुरों ने ही जरासंध से रक्षा और कृष्ण वलराम की दृढ़ स्थिति मथुरा में बनाये रखने को नगर के चारों ओर एक एक मुट्ठी (एक पल्लू) धूलि डालकर धूलकोट की रचना की थी तथी से ये रज के धुरैरा लगाने और रज प्रसाद देने लगे श्रमरज के महत्व प्रतिष्ठाता बन गये।

 

मुठी धूर लै कृष्णा हेतु जरा संघ लखि चोट।

 

मथुरा की रक्षा करी, धूर कोट की ओट।।

 

माथुर युद्ध विद्या के धनुर्विद्या और अश्वारोहण सैन्य विद्या के आचार्य भी थे। यवन (यूनानी अरब) तथा कम्बोज (कम्बौडिया) के कामभुज वीरों को अश्वारोहण की युद्ध कुशलता मथुरा के आचार्यों से ही मिली थी।

 

तथा यवन कम्बोजा मथुरा मभिगताश्च ये ।

 

एतेश्व युद्ध कुशला वभूबु द्विज सेवया।।

 

अर्थात यवन, कम्बोज आदि आसुर योद्धा भी मथुरा के शिष्य बनकर माथुर द्विजों की कृपा से ये सबके सब युद्व कुशल बन गये। माथुर धौम्य ऋषि श्रीकृष्ण के यज्ञोपवीत संस्कार कर्ता थे तथा श्रीकृष्ण ने ब्रह्मविद्या, उपनिषद् ज्ञान, कण्व आंगिरस से प्राप्त किया था- एतत् घोर अंगिरसों कृष्णायदेवकी नंदनायोक्तोवाच, तेनैव स आपेपास एव वभूव ।।

यह ब्रह्मविद्या श्रीकृष्ण को आंगिरस ऋषि (माथुर कुल गोत्रीय) ने दी, जिसे अमृत समान पीकर वे पिपासा रहित बन गये। वैदिक "यमुना सूक्त" के प्रमाण से श्रीकृष्ण –वलराम, वेदव्यास, भीष्म , शान्तनु आदि सभी यमुना भक्त और माथुरों के पूजक थे।

"वसुदेव सुतं देवम कंस चान्दूरमर्दनम् देवकी परमानन्दम् श्री कृष्णम वन्दे जगत गुरुम "

 

जय श्री कृष्णा ..

 

प्रस्तुति - अंकित चतुर्वेदी

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