आज का पंचांग

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  • Jeevan Mantra

रवींद्र कुमार

दिनांक 14 अगस्त 2020

दिन - शुक्रवार

विक्रम संवत - 2077 (गुजरात - 2076)

शक संवत - 1942

अयन - दक्षिणायन

ऋतु - वर्षा

मास - भाद्रपद (गुजरात एवं महाराष्ट्र अनुसार - श्रावण)

पक्ष - कृष्ण 

तिथि - दशमी दोपहर 02:01 तक तत्पश्चात एकादशी

नक्षत्र - मॄगशिरा पूर्ण रात्रि तक

योग - व्याघात सुबह 09:48 तक तत्पश्चात हर्षण

राहुकाल - सुबह 08:40 से सुबह 09:32 तक 

सूर्योदय - 06:18 

सूर्यास्त - 19:08 

दिशाशूल - पश्चिम दिशा में

 

 

हरदिनपावन

"14 अगस्त/बलिदान-दिवस"

उनका वजन बढ़ गया

 

अपनी मृत्यु की बात सुनते ही अच्छे से अच्छे व्यक्ति का दिल बैठ जाता है। उसे कुछ खाना-पीना अच्छा नहीं लगता; पर भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में ऐसे क्रान्तिकारी भी हुए हैं, फाँसी की तिथि निश्चित होते ही प्रसन्नता से जिनका वजन बढ़ना शुरू हो गया। ऐसे ही एक वीर थे सरदार बन्तासिंह।

 

बन्तासिंह का जन्म 1890 में ग्राम सागवाल (जालन्धर, पंजाब) में हुआ था। 1904-05 में काँगड़ा में भूकम्प के समय अपने मित्रों के साथ बन्तासिंह सेवाकार्य में जुटे रहे। पढ़ाई पूरी कर वे चीन होते हुए अमरीका चले गये। वहाँ उनका सम्पर्क गदर पार्टी से हुआ। उनकी योजना से वे फिर भारत आ गये।

 

एक बार लाहौर के अनारकली बाजार में एक थानेदार ने उनकी तलाशी लेनी चाही। बन्तासिंह ने उसे टालना चाहा; पर वह नहीं माना। उसकी जिद देखकर बन्तासिंह ने आव देखा न ताव; पिस्तौल निकालकर दो गोली उसके सिर में उतार दी। थानेदार वहीं ढेर हो गया।

 

अब बन्तासिंह का फरारी जीवन शुरू हो गया। एक दिन उनका एक प्रमुख साथी प्यारासिंह पकड़ा गया। क्रान्तिकारियों ने छानबीन की, तो पता लगा कि जेलर चन्दासिंह उनके पीछे पड़ा है। 25 अपै्रल, 1915 को बन्तासिंह, बूटासिंह और जिवन्द सिंह ने जेलर को उसके घर पर ही गोलियों से भून दिया। इसी प्रकार चार जून, 1915 को एक अन्य मुखबिर अच्छरसिंह को भी ठिकाने लगाकर यमलोक पहुँचा दिया गया।

 

गदर पार्टी पूरे देश में क्रान्ति की आग भड़काना चाहती थी। इसके लिए बड़ी मात्रा में शस्त्रों की आवश्यकता थी। बन्तासिंह और उसके साथियों ने एक योजना बनायी। उन दिनों क्रान्तिकारियों के भय से रेलगाड़ियों के साथ कुछ सुरक्षाकर्मी चलते थे। एक गाड़ी प्रातः चार बजे बल्ला पुल पर से गुजरती थी। उस समय उसकी गति बहुत कम हो जाती थी। 12 जून, 1915 को क्रान्तिकारी उस गाड़ी में सवार हो गये। जैसे ही पुल आया, उन्होंने सुरक्षाकर्मियों पर ही हमला कर दिया। अचानक हुए हमले से डर कर वे हथियार छोड़कर भाग गये। अपना काम पूरा कर क्रान्तिकारी दल भी फरार हो गया।

 

अब तो प्रशासन की नींद हराम हो गयी। उन्होंने क्रान्तिकारियों का पीछा किया। बन्तासिंह जंगल में साठ मील तक भागते रहे। वे बच तो गये; पर उनके पैर लहूलुहान हो गये। थकान और बीमारी से सारा शरीर बुरी तरह टूट गया। वे स्वास्थ्य लाभ के लिए घर पहुँचे; पर उनके एक सम्बन्धी को लालच आ गया। वह उन्हें अपने घर ले गया और पुलिस को सूचना दे दी।

 

जब पुलिस वहाँ पहुँची, तो बन्तासिंह आराम कर रहे थे। उन्होंने पुलिस दल को देखकर ठहाका लगाया और उस रिश्तेदार से कहा, यदि मुझे पकड़वाना ही था, तो मेरे हाथ में कम से कम एक लाठी तो दे दी होती। मैं भी अपने दिल के अरमान निकाल लेता।

 

पर अब क्या हो सकता था ? उनकी गिरफ्तारी का समाचार मिलते ही उनके दर्शन के लिए पूरा नगर उमड़ पड़ा। हथकड़ी और बेड़ियों में जकड़े बन्तासिंह ने नगरवासियांे को देखकर कहा कि मेरा बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। कुछ समय बाद ही ये अंग्रेज आपके पैरों पर लोटते नजर आयेंगे। ‘भारत माता की जय’ ओर ‘बन्तासिंह जिन्दाबाद’ के नारों से न्यायालय गूँज उठा।

 

बन्तासिंह को 25 जून को पकड़ा गया था। उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाकर 14 अगस्त, 1915 को फाँसी दे दी गयी। देश के लिए बलिदान होने की खुशी में इन 50 दिनों में उनका वजन 4.5 किलो बढ़ गया था।

 

 

#हरदिनपावन

"14 अगस्त/जन्म-दिवस"

वरिष्ठ प्रचारक : शशिकांत चौथाइवाले

 

श्री शशिकांत कृष्णराव चौथाइवाले का जन्म 14 अगस्त, 1937 (श्रीकृष्ण जन्माष्टमी) को कलमेश्वर (महाराष्ट्र) में हुआ था। यह परिवार मूलतः बारसी (सोलापुर) का निवासी है। इनकी माता श्रीमती इंदिरा चौथाइवाले थीं।

पूरा परिवार संघ में सक्रिय होने के कारण गांधी जी की हत्या के बाद इनके इतवारी स्थित घर पर डेढ़-दो हजार कांग्रेसियों ने हमला बोल दिया। 

उस समय सबसे बड़े भाई बाबूराव शाखा के मुख्यशिक्षक थे। शाखा का ध्वज उनके घर पर ही रहता था। सब भाइयों ने मिलकर ध्वज को अनाज के कुठार में छिपा दिया। कुछ देर तक उपद्रवी घर को छानते रहे; पर जब कुछ नहीं मिला, तो निराश होकर चले गये। बाबूराव के कारण इस घर में संघ के सभी कार्यकर्ताओं का आवागमन लगा रहता है। श्री गुरुजी इसे अपना दूसरा घर कहते थे।

शशिकांत जी अपने बड़े भाइयों श्री बाबूराव, मधुकरराव, सुधाकरराव तथा शरदराव के साथ नागपुर में ही स्वयंसेवक बने। उन्होंने नागपुर के प्रख्यात साइंस कॉलिज से सांख्यिकी विषय लेकर प्रथम श्रेणी में एम.एस-सी की उपाधि ली थी। इसके बाद उन्हें साइंस कॉलिज में ही प्राध्यापक बनने का निमन्त्रण मिला; पर उन्होंने इसे ठुकराकर प्रचारक बनने का निश्चय कर लिया था।

इससे उनके कई मित्र और अध्यापक नाराज हुए। उन्होंने कहा कि यदि प्रचारक ही बनना था, तो इतने परिश्रम से एम.एस-सी क्यों की ? शशिकांत जी ने उत्तर दिया कि पढ़ाई का उद्देश्य ज्ञान प्राप्त करना है, नौकरी करना नहीं। इससे पूर्व उनके बड़े भाई शरदराव भी प्रचारक बन कर विदर्भ में काम कर रहे थे। शशिकांत जी के बाद उनके छोटे भाई अरविंद चौथाइवाले भी प्रचारक बने। सबसे बड़े भाई बाबूराव चौथाइवाले ने अध्यापन कार्य तथा परिवार चलाते हुए 1954 से 94 तक नागपुर के केन्द्रीय कार्यालय पर सरसंघचालक श्री गुरुजी और फिर बालासाहब देवरस का पत्र-व्यवहार संभाला था।

 

इस प्रकार 1962 में उनका प्रचारक जीवन प्रारम्भ हुआ। उन दिनों असम में काम बहुत नया तथा कम था। वहां प्रतिभावान, सुयोग्य तथा कष्टों में भी काम करने वाले प्रचारकों की आवश्यकता थी। अतः शशिकांत जी को असम में तिनसुकिया जिले में प्रचारक का कार्य दिया गया। असम में अनेक भाषा और बोलियां प्रचलित हैं। खानपान की भिन्नता भी वहां पर्याप्त है; पर शशिकांत जी ने सबसे सामंजस्य बैठाते हुए दूरस्थ स्थानों पर शाखाएं स्थापित कीं।

 

इसके बाद वे विभाग प्रचारक, प्रान्तीय शारीरिक प्रमुख, सह प्रान्त प्रचारक, प्रान्त प्रचारक और क्षेत्र प्रचारक रहते हुए असम में काम करते रहे। असम में वनवासी एवं पर्वतीय क्षेत्र की बहुलता है। अतः वहां वनवासी कल्याण आश्रम, विद्या भारती आदि के कार्य को भी उन्होंने सशक्त किया। इन दिनों उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा नहीं रहता। अतः वे क्षेत्रीय कार्यकारिणी के सदस्य के नाते सबको अपने अनुभव से लाभान्वित करते रहते हैं।

 

1975 के प्र्रतिबंध के समय शशिकांत जी भूमिगत रहकर असम में ही  सत्याग्रह का संचालन करते रहे। वे कई बार ब्रह्मदेश की सीमा तक होकर आये तथा वहां रह रहे हिन्दुओं से संबंध स्थापित किया। सरल स्वभाव वाले शशिकांत जी की आवाज बहुत मधुर है। अपनी बात को सरल और स्पष्टता से रखने के कारण उनकी बात को लोग ध्यान से सुनते और समझते हैं।

 

शशिकांत जी स्वस्थ रहें, यही कामना और प्रार्थना है।

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