मथुरा स्थित श्रीराजाधिराज मन्दिर का पूर्व वृत्त - 6

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श्रीधर चतुर्वेदी

।।श्रीद्वारकेशो जयति।।

तृतीय गृह गौरवगान

प्रसंग:- 209

मथुरा स्थित श्रीराजाधिराज मन्दिर का पूर्व वृत्त - 6

लक्ष्मीचन्दजी के छोटे भाई गोविन्ददासजी ने गोकुलदासजी की अन्तिम इच्छा का आदर करते हुए श्रीराजाधिराज मन्दिर तृतीय गृह के तत्सामयिक तिलकायित श्रीगिरिधरलालजी को भेंट करने का विचार किया- यह घटनाक्रम हमने कल के प्रसंग में देखा। श्रीगिरिधरलालजी ने मथुरा पधारकर किस प्रकार मन्दिर को अपने अधिकार में लेकर श्रीप्रभु की पुष्टिमार्गीय सेवाप्रणाली स्थापित की उसका वृत्तांत आज प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

"सं.1929 के माघ कृ.6 के दिन महाराजश्री मथुरा पधारे। उचित स्वागत-सत्कार के बाद मन्दिर की व्यवस्था के विषय में विचारविमर्श करके कुछ नियम बनाये गये और उसकी पाण्डुलिपि महाराजश्री को सुनाई गई। इन नियमों में एक कलम ऐसी थी कि- 'इस मन्दिर की सम्पत्ति में से महाराजश्री कुछ भी कमोबेश न कर सकेंगे।' महाराजश्री ने इस पर आपत्ति उठाते हुए उसे स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। इसका कारण पूछे जाने पर उन्होंने गोविन्ददासजी और उनके परिवारजनों को बुलाकर कहा कि- संपत्ति में से कम करने का अधिकार तो हम स्वयं नहीं चाहते, पर क्या उसमें बेश (आधिक्य) करने का भी हमें अधिकार नहीं है? यदि ऐसा है, मुझे यह स्वीकार्य नहीं है। उनके इस उम्दा आशय से गद्गद होकर सेठ के परिवारजनों ने इस शब्दप्रयोग के लिए माफ़ी माँगी। सब कुछ तय हो जाने पर मन्दिर की सुव्यवस्था के लिए सं.1930 वैशाख शु.7 (ता.3 मई, सन् 1873) के दिन सेठ गोविन्ददासजी आदि ने दस्तावेज़ लिखकर महाराजश्री को भेंट किया और ता.16 मई को नियमानुसार इसकी रजिस्ट्री करा दी गई।"

"इस प्रकार बहुत समय बाद स्व. गोकुलदासजी की इच्छा कार्यरूप में परिणत हुई और 'श्रीराजाधिराज' का मन्दिर उनके गुरुघर कांकरोली में भेंट आ गया।  सं.1930 ज्येष्ठ शु.11 के दिन से यहाँ मर्यादामार्गीय सेवापूजा के स्थान पर पुष्टिमार्गीय सेवाप्रकार से सेवाक्रम आरम्भ हुआ, जो आज भी यथावत् चल रहा है। श्रीगिरिधरलालजी ने भी आवश्यक भेंट और कुछ आभरण (गहने) आदि, जो मार्गीय प्रणाली अनुसार आवश्यक थे, बनवाकर श्रीप्रभु को समर्पित किये।"

"श्रीगोकुलदासजी ने राजाधिराज श्रीद्वारकाधीश प्रभु को मथुरा जैसे  प्रसिद्ध तीर्थस्थल में मन्दिर बनाकर विराजमान करके नगर की शोभा बढ़ाई, और यात्रियों के लिए श्रद्धा-भक्ति का केन्द्र निर्मित किया। वहीं श्रीगिरिधरलालजी ने उसे पुष्टिमार्गीय परंपरा में संमिलित कर न केवल संप्रदाय के गौरव में वृद्धि की, अपितु मथुरा जैसे महत्त्वपूर्ण स्थान पर तृतीय पीठ का प्रभुत्व स्थापित किया।"

आज प्रसंग का यहाँ समापन करते हैं। तृतीय गृह के अधिकार में आने के बाद राजाधिराज मन्दिर की पूर्वस्थापित परंपराओं के निर्वहन के साथ जो गतिविधियाँ और जोड़ी गई हैं उनका विवरण देखकर कल इस प्रकरण को समाप्त करेंगें।

आज प्रस्तुत प्राचीन चित्र में  राजाधिराज श्रीद्वारकाधीश प्रभु की सेवा में उपस्थित श्रीगिरिधरलालजी, सेठ गोविन्ददासजी और उनके परिवारजन एवं अन्य गणमान्य लोग दृश्यमान हो रहे हैं।

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