अग्नि की उत्पत्ति

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  • Jeevan Mantra

पंडित राजेश दुबे भोपाल मध्य प्रदेश

आर्ययुगीन मानव के सामने प्रथम आवश्यकता एतव समस्या भोजन निवास आग और आत्मरक्षा की रही थी। कृतयुग में जबकि मनुष्य नितांत ही जंगली अवस्था मे रहा था तन उसको कई कारणों जैसे भोजन रोग तथा शत्रुओं के कारण एक स्थान से दूसरे स्थान में भटकना पड़ा। प्रकृति के विरोध में आत्म रक्षा हेतु निरन्तर संघर्ष किया।

शनै शनै उसने आग का पता लगाया जिसका श्रेय अंगिरस को है ।( ऋग्वेद 5।2।8;1032।6; 5।11।6 )। आग का भान ज्ञान हो जाने से तात्कालीन जन जीवन मे महान क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ । उसको प्राकृतिक शक्ति के रूप में देखा गया । एक बार टी उसका उपयोग पशुओं तथा मछलियों के मांस को भुनाने में किया गया और दूसरी ओर शत्रुबाधा को दूर करने तथा भूत-प्रेतादि को भगाने वाली महाशक्ति के रूप में भी पूजा जाने लग (3।1।15; )। धीरे धीरे मनुष्य ने समझा कि ये पशु जो दूधारू है जिनका मांस खाकर जीवित रहा जा सकता है;उनकी रोगमुक्त खाल को ओढ़कर सर्दी दूर की जा सकती है और उसकी हड्डियों तथा सींगों से उपयोगी औजार भी बनाये जा सकते है।

अग्नि की सहायता से मनुष्य की उन्नति का एक दूसरा रूप सामने आया।ज्यों ही उसको यह ज्ञात हुआ कि अग्नि के द्वारा कच्चे लोहे को पिघला कर बड़े बड़े असम्भव कार्य भी सम्भव हो सकते है,की समाज का ढांचा ही बदल गया;किन्तु मनुष्य की यह सूझ बहुत बाद की है।

जंगल युग से बर्बर युग मे हुच कर , अर्थात कृतयुग के अविष्कारों का विकास कर जब उसने त्रेतायुग में प्रवेश किया तो प्रकृति के सामने उसने अपनी जिन दुर्बलताओं को स्वीकार किया था, उन पर उसने विजय प्राप्त कर कर ली।

उसने अपने यायावरीय जीवन को स्माप्त कर बस्तियाँ बसायी; उसने अनियमित भोजन व्यवस्था को नियमित बनाया; वस्त्रों का द्वारा उसने अपनी नग्नता को ढंका। इसप्रकार की विकासावस्था में पहुचकर उसने उत्पादन की नई प्रणाली, सामाजिक संघटन के नए ढंग और कला के नवीन स्वरूपों को जन्म दिया।

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