तृतीय गृह त्रयोदश गृहाधीश श्रीव्रजभूषणलालजी महाराज(चतुर्थ) - 5

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  • Jeevan Mantra

प्रस्तुति : श्रीधर चतुर्वेदी

।।श्रीद्वारकेशो जयति।।

तृतीय गृह गौरवगान

प्रसंग:- 228

 

तृतीय गृह त्रयोदश गृहाधीश श्रीव्रजभूषणलालजी महाराज(चतुर्थ) - 5

 

श्रीव्रजभूषणलालजी के विवाह प्रस्ताव और सघन-गहन विद्याध्ययन के वृत्तांत से हम कल के प्रसंग में अवगत हुए।

विद्याध्ययन के क्रम के चलते हुए उस बीच उन्होंने जो प्रदेश-प्रवास किये उन स्थानों के केवल नामोल्लेख आजके प्रसंग में करके, मथुरास्थित श्रीराजाधिराज मन्दिर के सुवर्ण हिन्डोला महोत्सव के वर्णन पर दृष्टिपात करेंगें।

 

"सं.1976- पाटन, मन्दसौर(मालवा)।

सं.1981-82- कृष्णगढ़, बीकानेर, साँभर, डाकोर, उमरेठ, ठासरा, नन्दीसर, सेवालिया, बालासिनोर।

सं.1983- बोरसद, बहादरपुर, संखेडा, बड़ौदा, भरूच, सोजीत्रा, वसो, सूरत।

सं.1984- बंबई, औरंगाबाद, बीजापुर, वड़नगर, वीसनगर, अहमदाबाद, कालोल, हालोल।"

 

"इन सभी स्थानों पर धार्मिक जागृति, प्रचार, प्रायः प्रत्येक वैष्णव के घर पधरावनी, उनके प्रति स्वागत, भक्तिभाव आदि का विस्तृत वर्णन  यहाँ संभव नहीं हो पायेगा। कई स्थानों पर नूतन मन्दिरों की स्थापना एवं विद्यमान मन्दिरों के नवनिर्माण के उत्सव भी मनाये गये।"

 

"मथुरा में श्रीराजाधिराज (श्रीद्वारकाधीश) मन्दिर में श्रावण मास में हिन्डोले के समय अच्छी धूमधाम रहती आई है। वहाँ लाखों यात्री जाकर प्रभु के दर्शन करते हैं। इसी स्थान से मथुरा नगरी की शोभा और प्रतिष्ठा है। इस वर्ष सुवर्ण के हिन्डोले का विशेष आयोजन हुआ था। प्रारंभ से लेकर इस समय तक मन्दिर में विशाल सम्पत्ति होते हुए भी सोने का हिन्डोला नहीं था, पर अधिकारीजी के सुप्रबन्ध के कारण ऐसा सौकर्य प्राप्त हुआ, जिससे उनके आग्रह पर महाराजश्री ने इस त्रुटि को भी पूर्ण किया। यह सोने का हिन्डोला डेढ़ लाख रुपये की लागत से बंबई में तैयार कराया गया और इस वर्ष श्रावण मास में इसे प्रभु के विनियोग में लाया गया। सं.1984 आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन महाराजश्री सकुटुम्ब इस मनोरथ को सम्पन्न करने मथुरा पधारे।"

 

"मथुरा पधारने पर राजाधिराज के सेठों, नागरिकों और राज्यकर्मचारियों द्वारा महाराजश्री का स्वागत किया गया और जूलूस के साथ उनको मन्दिर ले जाया गया। श्रावण कृ.1 से ही बड़े साजबाज के साथ सोने के हिंडोले का मनोरथ हुआ, जिसमें लगभग बीस हज़ार दर्शनार्थियों ने दर्शन किये। यहाँ रहते समय महाराजश्री ने स्थानीय विद्वानों का आमन्त्रण कर मंदिर में एक विद्वत्सभा की। विद्वानों की शास्त्रचर्चा सुनकर स्वयं उन्होंने अपने हाथ से दक्षिणादि से उनका सम्मान किया। इसी समय मंदिर के अधिकारी द्वारा व्यक्तिगत रूप से महाराजश्री को एक अभिनंदन-पत्र भेंट किया गया। दो-तीन दिन मंदिर के विशाल चौक में सार्वजनिक धार्मिक सभाएँ हुईं, जिसमें महाराजश्री तथा विद्वानों के भाषण हुए।"

 

आज यहीं पर विराम लेते हुए कल इनके चरित्र की कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण घटनाओं का अवलोकन करेंगें। आज यहाँ प्रस्तुत चित्र में महाराजश्री अपनी युवावस्था में राजसी वेशभूषा में सज्ज दृश्यमान हो रहे हैं।

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