आज‬ का पंचांग

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  • Jeevan Mantra

रवींद्र कुमार

|।ॐ।|

आज‬ का पंचांग

 

तिथि.........चतुर्दशी

वार...........मंगलवार

पक्ष... .......कृष्ण

         

नक्षत्र.........अश्लेषा

योग...........वारियान

राहु काल.....१५:४१--१७:१९

 

मास............भाद्रपद

ऋतु.............वर्षा

 

कलि युगाब्द....५१२२

विक्रम संवत्....२०७७

 

18   अगस्त   सं  2020

आज का दिन सभी के लिए मंगलमय हो

 

#हरदिनपावन

"18 अगस्त/जन्म-दिवस"

अपराजेय नायक  : पेशवा बाजीराव

 

छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपने भुजबल से एक विशाल भूभाग मुगलों से मुक्त करा लिया था। उनके बाद इस ‘स्वराज्य’ को सँभाले रखने में जिस वीर का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, उनका नाम था बाजीराव पेशवा।

 

बाजीराव का जन्म 18 अगस्त, 1700 को अपने ननिहाल ग्राम डुबेर में हुआ था। उनके दादा श्री विश्वनाथ भट्ट ने शिवाजी महाराज के साथ युद्धों में भाग लिया था। उनके पिता बालाजी विश्वनाथ छत्रपति शाहू जी महाराज के महामात्य (पेशवा) थे। उनकी वीरता के बल पर ही शाहू जी ने मुगलों तथा अन्य विरोधियों को मात देकर स्वराज्य का प्रभाव बढ़ाया था।

 

बाजीराव को बाल्यकाल से ही युद्ध एवं राजनीति प्रिय थी। जब वे छह वर्ष के थे, तब उनका उपनयन संस्कार हुआ। उस समय उन्हें अनेक उपहार मिले। जब उन्हें अपनी पसन्द का उपहार चुनने को कहा गया, तो उन्होंने तलवार को चुना। छत्रपति शाहू जी ने एक बार प्रसन्न होकर उन्हें मोतियों का कीमती हार दिया, तो उन्होंने इसके बदले अच्छे घोड़े की माँग की। घुड़साल में ले जाने पर उन्होंने सबसे तेज और अड़ियल घोड़ा चुना। यही नहीं, उस पर तुरन्त ही सवारी गाँठ कर उन्होंने अपने भावी जीवन के संकेत भी दे दिये।

 

चौदह वर्ष की अवस्था में बाजीराव प्रत्यक्ष युद्धों में जाने लगे। 5,000 फुट की खतरनाक ऊँचाई पर स्थित पाण्डवगढ़ किले पर पीछे से चढ़कर उन्होंने कब्जा किया। कुछ समय बाद पुर्तगालियों के विरुद्ध एक नौसैनिक अभियान में भी उनके कौशल का सबको परिचय मिला। इस पर शाहू जी ने इन्हें ‘सरदार’ की उपाधि दी। दो अप्रैल, 1720 को बाजीराव के पिता विश्वनाथ पेशवा के देहान्त के बाद शाहू जी ने 17 अपै्रल, 1720 को 20 वर्षीय तरुण बाजीराव को पेशवा बना दिया। बाजीराव ने पेशवा बनते ही सर्वप्रथम हैदराबाद के निजाम पर हमलाकर उसे धूल चटाई।

 

इसके बाद मालवा के दाऊदखान, उज्जैन के मुगल सरदार दयाबहादुर, गुजरात के मुश्ताक अली, चित्रदुर्ग के मुस्लिम अधिपति तथा श्रीरंगपट्टनम के सादुल्ला खाँ को पराजित कर बाजीराव ने सब ओर भगवा झण्डा फहरा दिया। इससे स्वराज्य की सीमा हैदराबाद से राजपूताने तक हो गयी। बाजीराव ने राणो जी शिन्दे, मल्हारराव होल्कर, उदा जी पँवार, चन्द्रो जी आंग्रे जैसे नवयुवकों को आगे बढ़ाकर कुशल सेनानायक बनाया।

 

पालखिण्ड के भीषण युद्ध में बाजीराव ने दिल्ली के बादशाह के वजीर निजामुल्मुल्क को धूल चटाई थी। द्वितीय विश्वयुद्ध में प्रसिद्ध जर्मन सेनापति रोमेल को पराजित करने वाले अंग्रेज जनरल माण्टगोमरी ने इसकी गणना विश्व के सात श्रेष्ठतम युद्धों में की है। इसमें निजाम को सन्धि करने पर मजबूर होना पड़ा। इस युद्ध से बाजीराव की धाक पूरे भारत में फैल गयी। उन्होंने वयोवृद्ध छत्रसाल की मोहम्मद खाँ बंगश के विरुद्ध युद्ध में सहायता कर उन्हें बंगश की कैद से मुक्त कराया। तुर्क आक्रमणकारी नादिरशाह को दिल्ली लूटने के बाद जब बाजीराव के आने का समाचार मिला, तो वह वापस लौट गया।

 

सदा अपराजेय रहे बाजीराव अपनी घरेलू समस्याओं और महल की आन्तरिक राजनीति से बहुत परेशान रहते थे। जब वे नादिरशाह से दो-दो हाथ करने की अभिलाषा से दिल्ली जा रहे थे, तो मार्ग में नर्मदा के तट पर रावेरखेड़ी नामक स्थान पर गर्मी और उमस भरे मौसम में लू लगने से मात्र 40 वर्ष की अल्पायु में 28 अपै्रल, 1740 को उनका देहान्त हो गया। उनकी युद्धनीति का एक ही सूत्र था कि जड़ पर प्रहार करो, शाखाएं स्वयं ढह जाएंगी। पूना के शनिवार बाड़े में स्थित महल आज भी उनके शौर्य की याद दिलाता है।

 

 

#हरदिनपावन

"18 अगस्त/जन्म-दिवस"

 

सिन्ध में संघ कार्य के प्रणेता राजपाल पुरी

 

श्री राजपाल पुरी का जन्म 18 अगस्त, 1919 को स्यालकोट (वर्तमान पाकिस्तान) में एक वकील श्री बिशम्भर नाथ एवं श्रीमती बिन्द्रा देवी के घर में हुआ था। उनका घर हकीकत राय की समाधि के सामने था। पढ़ाई में वे सदा प्रथम श्रेणी तथा छात्रवृत्ति पाते रहे। 1929 में उनके पिताजी का निधन हो गया। 

 

1937 में उत्तर पंजाब के प्रांत प्रचारक श्री के.डी.जोशी के सम्पर्क में आकर वे स्वयंसेवक बने। 1938 तथा 39 में उन्होंने नागपुर से प्रथम व द्वितीय वर्ष संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण लिया। 1939 में पंजाब वि.वि. से बी.ए. करते ही उन्हें दिल्ली में रक्षा विभाग में नौकरी मिल गयी; पर एक महीने बाद त्यागपत्र देकर वे संघ कार्य के लिए हैदराबाद पहुंच गये। वहां हिन्दू महासभा के नेता श्री धर्मदास बेलाराम ने उनके रहने का प्रबंध किया। घर की जिम्मेदारी होने से वे वहां एक विद्यालय में पढ़ाने लगे; पर छोटे भाई संतोष की नौकरी लगते ही पढ़ाना छोड़कर वे पूरी तरह संघ के काम में लग गये।

 

नागपुर में हुए 1940 के संघ शिक्षा वर्ग में सिन्ध से छह स्वयंसेवक गये। राजपाल जी ने भी तभी अपना तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण पूरा किया। 1945 में वे सिन्ध के प्रांत प्रचारक बने। उन्हें सब ‘श्रीजी’ कहकर बुलाते थे। सिन्ध में हिन्दू केवल 13 लाख थे। विभाजन की तलवार सिर पर लटकी थी। मुसलमानों के अत्याचार बढ़ रहे थे। कई गांव और कस्बों में हिन्दू केवल दो-तीन प्रतिशत ही थे; पर शाखाओं के कारण हिन्दुओं में भारी जागृति आयी।  

 

राजपाल जी के प्रयास से बैरिस्टर खानचंद गोपालदास कराची के तथा बैरिस्टर होतचंद गोपालदास अडवानी हैदराबाद के संघचालक बने। एक बार श्री अडवानी एक बम कांड में पकड़े गये। सरसंघचालक श्री गुरुजी तथा राजपाल जी के प्रयास से वे रिहा हुए। 1942 में संघ कार्यालय, हैदराबाद पर छापा मारकर पुलिस ने राजपाल जी तथा दो अन्य को पकड़ लिया। ऐसे में बैरिस्टर अडवानी ने मार्शल लॉ प्रशासक से मिलकर उन्हें रिहा कराया।

 

मार्च 1947 में राजपाल जी ने पूरे प्रान्त में हिन्दू जनगणना की। इससे 1947 में हिन्दुओं की रक्षा में बड़ा लाभ हुआ। उन्होंने ‘पंजाब सहायता समिति’ बनाकर पांच लाख रु. एकत्र किये तथा शस्त्रों के संग्रह, निर्माण व प्रशिक्षण का प्रबन्ध किया। विभाजन के बाद जोधपुर को केन्द्र बनाकर उन्होंने सिन्ध से आये हिन्दुओं के पुनर्वास का काम किया। 1948 के प्रतिबंध काल में संघ का संविधान बनाने में उन्होंने दीनदयाल जी तथा एकनाथ जी का साथ दिया। प्रतिबंध समाप्ति के बाद वे गुजरात और फिर महाराष्ट्र के प्रांत प्रचारक बनाये गये।

 

1952 में छोटे भाई की असामयिक मृत्यु से वृद्ध मां की जिम्मेदारी फिर उन पर आ गयी। अतः 1954 में उन्होंने विवाह कर लिया। इससे पूर्व 1953 में उन्होंने ‘मुंबई हाइकोर्ट बार काउंसिल’ की परीक्षा दी। वहां भी प्रथम श्रेणी तथा प्रथम स्थान पाने पर उन्हें ‘सर चिमनलाल सीतलवाड़ पदक’ मिला। वकालत के साथ वे विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ, विश्व हिन्दू परिषद, विवेकानंद शिला स्मारक, फ्रेंडस ऑफ इंडिया सोसायटी आदि में सक्रिय रहे। 

 

वे उद्योग कानूनों के विशेषज्ञ थे। उन्होंने विश्व मजदूर संघ (आई.एल.ओ) के जेनेवा अधिवेशन में भी भाग लिया था।आपातकाल में उनके वारंट थे; पर वे विदेश चले गये और वहीं जनजागरण करते रहे। मार्च 1977 में वे लौटे; पर कुछ ही दिन बाद 27 मार्च, 1977 को हुए भीषण हृदयाघात से उनका निधन हो गया।

 

राजपाल जी हिन्दी, अंग्रेजी, पंजाबी, सिन्धी, मराठी, गुजराती आदि कई भाषाएं जानते थे। सिन्ध में उनके आठ वर्ष के कार्यकाल में बलूचिस्थान तक शाखाओं का विस्तार हुआ। लगभग 75 युवक प्रचारक भी बने। पांच अगस्त, 1947 को कराची में सरसंघचालक श्री गुरुजी की सभा में दस हजार गणवेशधारी स्वयंसेवक तथा एक लाख हिन्दू आये। सिन्ध आज भारत में नहीं है; पर वहां से सुरक्षित भारत आये सभी हिन्दू राजपाल जी को श्रद्धापूर्वक याद करते हैं।

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