शबरी कथा

Subscribe






Share




  • Jeevan Mantra

शबरी का वास्तविक नाम श्रमणा था। श्रमणा भील समुदाय की शबरी जाति से सम्बंधित एक कुलीन ह्रदय की प्रभु राम की एक अनन्य भक्त  थी। उसका विवाह एक दुराचारी और अत्याचारी व्यक्ति से हुआ था।प्रारम्भ में श्रमणा ने अपने पति के आचार-विचार बदलने की बहुत चेष्टा की, लेकिन उसके पति के पशु संस्कार इतने प्रबल थे कि श्रमणा को उसमें सफलता नहीं मिली। कालांतर में अपने पति के कुसंस्कारों  और अत्याचारों से तंग आकर श्रमणा ने ऋषि मातंग के आश्रम में शरण ली। आश्रम में श्रमणा श्रीराम का भजन  और ऋषियों की सेवा-सुश्रुषा करती हुई अपना समय व्यतीत करने लगी ।

 

श्रमणा अपने व्यवहार और कार्य−कुशलता से शीघ्र ही आश्रमवासियों की प्रिय बन गई। उसके पति को पता चला कि वह मतंग ऋषि के आश्रम में रह रही है तो वह उसे आश्रम से उठा लाने के लिए चल पड़ा। मतंग ऋषि को इसके बारे में पता चल गया। श्रमणा दोबारा उस वातावरण में नहीं जाना चाहती थी। उसने करुण दृष्टि से ऋषि की ओर देखा। ऋषि ने फौरन उसके चारों ओर अग्नि पैदा कर दी। जैसे ही उसका पति आगे बढ़ा, उस आग को देखकर डर गया और वहाँ से भाग खड़ा हुआ। इस घटना के बाद उसने फिर कभी श्रमणा की तरफ क़दम नहीं बढ़ाया। 

स्थूलशिरा नामक महर्षि के अभिशाप से राक्षस बने कबन्ध को भगवान् श्री राम ने उसका वध करके मुक्ति दी और उससे माता सीता की खोज में मार्ग दर्शन करने का अनुरोध किया। तब कबन्ध नेभगवान्  श्री राम को मतंग ऋषि के आश्रम का रास्ता बताया और राक्षस योनि से मुक्त होकर गन्धर्व रूप में परम धाम पधार गया।भगवान्  श्री राम माता सीता की खोज में मतंग ऋषि के आश्रम में पहुंचे। मतंग ऋषि ने उन्होंने दोनों भाइयों का यथायोग्य सत्कार किया। 

श्रमणा वन-फलों की अनगिनत टोकरियां भरी और औंधी की। पथ बुहारती रही। राह निहारती रही। प्रतीक्षा में शबरी स्वयं प्रतीक्षा का प्रतिमान हो जाती है। जब शबरी को पता चला कि भगवान श्रीराम स्वयं उसके आश्रम  आए हैं तो वह एकदम भाव विभोर हो उठी और ऋषि मतंग के दिए आशीर्वाद को स्मरण करके गद्गद हो गईं। वह दौड़कर अपने प्रभु श्रीराम के चरणों से लिपट गईं। मतंग ऋषि ने कहा, हे श्रमणा! जिन भगवान् श्री राम की तुम बचपन से सेवा−पूजा करती आ रही थीं, वही राम आज साक्षात तुम्हारे सामने खड़े हैं। मन भरकर इनकी सेवा कर लो। 

 

सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला। स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई॥ 

 

प्रेम मगर मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा। सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे॥ 

 

कमल-सदृश नेत्र और विशाल भुजा वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किये हुए सुन्दर साँवले और गोरे दोनों भाईयों के चरणों में शबरीजी लिपट पड़ीं। वह प्रेम में मग्न हो गईं। मुख से वचन तक नहीं निकलता। बार-बार चरण-कमलों में सिर नवा रही हैं। फिर उन्हें जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाईयों के चरण कमल धोये और फिर उन्हें सुन्दर आसनों पर बैठाया।

 

कंद−मूलों के साथ वह कुछ जंगली बेर भी लाई थी। कंद−मूलों को उसने श्री भगवान् के अर्पण कर दिया। पर बेरों को देने का साहस नहीं कर पा रही थी। कहीं बेर ख़राब और खट्टे न निकलें, इस बात का उसे भय था।उसने बेरों को चखना आरंभ कर दिया। अच्छे और मीठे बेर वह बिना किसी संकोच के श्रीराम को देने लगी। भगवान्  श्री राम उसकी सरलता पर मुग्ध थे। पौराणिक सन्दर्भों के अनुसार, बेर कहीं खट्टे न हों, इसलिए अपने इष्ट की भक्ति की मदहोशी से ग्रसित शबरी ने बेरों को चख-चखकर भगवान्  श्री राम व लक्ष्मण को भेंट करने शुरू कर दिए। भगवान्  श्री राम शबरी की अगाध श्रद्धा व अनन्य भक्ति के वशीभूत होकर सहज भाव एवं प्रेम के साथ झूठे बेर अनवरत रूप से खाते रहे।  

भगवान्  श्री राम ने शबरी द्वारा श्रद्धा से भेंट किए गए बेरों को बड़े प्रेम से खाए और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। 

 

कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि। प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि॥ 

 

इसके बाद  भगवान् श्री राम ने शबरी की भक्ति से खुश होकर कहा, ‘‘भद्रे!  तुमने  मेरा बड़ा सत्कार किया। अब तुम अपनी इच्छा के अनुसार आनंदपूर्वक अभीष्ट लोक की यात्रा करो।’’ इस पर शबरी ने स्वयं को अग्नि के अर्पण करके दिव्य शरीर धारण किया और अपने प्रभु की आज्ञा से स्वर्गलोक पधार गईं।

लक्ष्मण जी ने झूठे बेर खाने में संकोच किया। उसने नजर बचाते हुए वे झूठे बेर एक तरफ फेंक दिए। लक्ष्मण जी द्वारा फेंके गए यही झूठे बेर, बाद में जड़ी-बूटी बनकर उग आए। समय बीतने पर यही जड़ी-बूटी लक्ष्मण जी के लिए संजीवनी साबित हुई। भगवान्  श्री राम-रावण युद्ध के दौरान रावण के पुत्र इन्द्रजीत (-मेघनाथ) के ब्रह्मास्त्र  से लक्ष्मण मुर्छित हो गए और मरणासन्न हो गए। विभिषण के सुझाव पर लंका से वैद्यराज सुषेण को लाया गया। वैद्यराज सुषेण के कहने पर बजरंग बली हनुमान संजीवनी लेकर आए। भगवान्  श्री राम की अनन्य भक्त शबरी के झूठे बेर ही लक्ष्मण के लिए जीवनदायक साबित हुए।

 

भगवान् श्री राम अपनी इस वनयात्रा में मुनियों के आश्रम में भी गए। महर्षि भरद्वाज, ब्रह्मर्षि वाल्मीकि आदि के आश्रम में भी आदर और स्नेहपूर्वक उन्हें कंद, मूल, फल अर्पित किए गए। 

 

महर्षि वाल्मीकी ने शबरी को सिद्धा कहकर पुकारा, क्योंकि अटूट प्रभु भक्ति करके उसने अनूठी आध्यात्मिक उपलब्धि हासिल की थी। यदि शबरी को हमारी भक्ति परम्परा का प्राचीनतम प्रतीक कहें तो कदापि गलत नहीं होगा।

 

नवधा भक्ति :: शबरी को उसकी योगाग्नि से हरिपद लीन होने से पहले प्रभु राम ने शबरी को नवधाभक्ति के अनमोल वचन दिए। प्रभु  सदैव भाव के भूखे हैं और अन्तर की प्रीति पर रीझते हैं ।

 

नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं। प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥

 

मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। 

पहली भक्ति है संतों का सत्संग। 

दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम। 

 

गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान। चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥

 

तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा। 

चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें। 

 

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा; पंचम भजन सो बेद प्रकासा। छठ दम सील बिरति बहु करम; निरत निरंतर सज्जन धरमा॥

 

मेरे (-राम नाम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है।

छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (-अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (-आचरण) में लगे रहना। 

 

सातवँ सम मोहि मय जग देखा; मोतें संत अधिक करि लेखा। आठवँ जथालाभ संतोषा; सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥

 

सातवीं भक्ति है जगत्‌ भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (-राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। 

आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना। 

 

नवम सरल सब सन छलहीना; मम भरोस हियँ हरष न दीना। नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई; नारि पुरुष सचराचर कोई॥

 

नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो। 

 

सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें; सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें। जोगि बृंद दुरलभ गति जोई; तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥

 

हे भामिनि! मुझे वही अत्यंत प्रिय है। फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है। 

 

पं बनवारी चतुर्वेदी

TTI News

Your Own Network

CONTACT : +91 9412277500


अब ख़बरें पाएं
व्हाट्सएप पर

ऐप के लिए
क्लिक करें

ख़बरें पाएं
यूट्यूब पर