जानियें, श्राद्ध का भोजन कैसे ग्रहण करते पितर

Subscribe






Share




  • Jeevan Mantra

विपाक संहिता का सिद्धांत वैदिक शास्त्रों का मूल आधार है। शास्त्रों के अनुत्तम मतानुसार समस्त वैदिक एवं धार्मिक कार्य निष्पादित होतें हैं। हमारे संचित कर्मों के मूल  में ये जीवन तो रहता ही है। किन्तु मरने के बाद की गति भी हमारे कर्मों का मूल है। हम मरणोपरांत गति को लक्ष्य करके भी कर्म करतें है। 

 

हमारे मन में यह प्रश्न आना स्वाभाविक है कि श्राद्ध का भोजन पितरो तक कैसे पहुँचता है ? इस प्रश्न के प्रतिउत्तर के रूप में हमारे शास्त्रों में जो तर्क-सम्मत उत्तर प्रस्तुत किये गए हैं। 

 

#पुनर्जन्म के सिद्धान्त के अनुसार #जीव एक शरीर को छोड़कर दूसरे नवीन शरीर में प्रविष्ट होता है। किन्तु तीन पूर्व पुरुषों के पिण्डदान का सिद्धान्त यह बतलाता है कि तीनों पूर्वजों की जीव सहस्त्र वर्षों के उपरान्त भी वायु में संचरण करते हुए चावल के पिण्डों की सुगन्धि या सारतत्व वायव्य सूक्ष्म देह द्वारा ग्रहण करने में समर्थ होती हैं। पितामह (पितर) श्राद्ध में दिये गये पिण्डों से स्वयं संतुष्ट होकर अपने वंशजों को जीवन, संतति, सम्पत्ति, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सभी सुख शांति समृद्धि एवं राज्य देते हैं।

#मत्स्यपुराण में ऋषियों द्वारा पूछा गया एक प्रश्न ऐसा आया है कि वह भोजन, जिसे ब्राह्मण (श्राद्ध में आमंत्रित) खाता है या जो कि अग्नि में डाला जाता है, क्या उन मृतात्माओं के द्वारा ग्रहण किया जाता है? जो (मृत्युपरान्त) अच्छे या बुरे शरीर धारण कर चुके होंगे। 

#उत्तर दिया गया है कि पिता, पितामह, प्रपितामह वैदिक उक्तियों के अनुसार, क्रम से “वसुओं”, “रुद्रों” तथा “आदित्यों” के रूप माने गये हैं। इनका नाम एवं गोत्र (श्राद्ध के समय वर्णित), उच्चारित मंत्र एवं श्रद्धा दी गयी आहुतियों को पितरों के पास ले जाते हैं।

यदि किसी के पिता (अपने अच्छे कर्मों के कारण) देवता हो गये हैं, तो श्राद्ध में दिया हुआ भोजन अमृत हो जाता है और वे उनके देवत्व की स्थिति में उनका अनुसरण करता है। यदि वे दैत्य (असुर) हो गये हैं तो वह (श्राद्ध में दिया गया भोजन) उनके पास भाँति-भाँति के आनन्दों के रूप में पहुँचता है। यदि वे पशु हो गये हैं तो वह उनके लिए घास हो जाता है और यदि वे सर्प हो गये हैं तो श्राद्ध का भोजन वायु बनकर उनकी सेवा करता है, आदि। 

#श्राद्धकल्पतरु में एक अन्य उत्तर प्रस्तुत करता है इसके अनुसार - वसु, रुद्र आदि ऐसे देवता हैं, जो कि सभी स्थानों पर अपनी पहुँच रखते हैं, अतः पितृ जहाँ पर भी हों वे उन्हें संतुष्ट करने की शक्ति रखते हैं।

ऐसा कहा गया है कि श्राद्ध के समय पितर लोग (आमंत्रित) ब्राह्मणों में वायु रूप में प्रविष्ट हो जाते हैं और जब योग्य ब्राह्मण वस्त्रों, अन्नों, प्रदानों, भक्ष्यों, पेयों, गायों, अश्वों, ग्रामों आदि से सम्पूजित होते हैं तो वे प्रसन्न होते हैं। स्वयं भगवान राम जब वन में पिता दशरथ जी का श्राद्ध करने लगे और ऋषि गण भोजन करने लगे तो सीता जी ने भगवन से कहा कि मैंने तीनो ब्राह्मणों में अग्र में पिता दशरथ जी को और अन्य दो ब्राह्मणों में दो अन्य महापुरुष दिखायी दिए. पितर लोग आमंत्रित ब्राह्मणों में प्रवेश करते हैं।

#मत्स्यपुराण के अनुसार मृत्यु के उपरान्त पितर को 12 दिनों तक पिण्ड देने चाहिए, क्योंकि वे उसकी दिव्य सूक्ष्म देह यात्रा में भोजन का कार्य करते हैं और उसे तृप्ति देते हैं। प्रेत जीव मृत्यु के उपरान्त 12 दिनों तक अपने आवास को नहीं त्यागते। अतः दस दिनों तक दूध और जल ऊपर टांग देना चाहिए। जिससे सभी यातनाएँ (मृत के कष्ट) दूर हो सकें और यात्रा की थकान मिट सके (मृतात्मा को निश्चित गन्तव्य स्वर्ग या यम के लोक में जाना पड़ता है)।

"मृतात्मा, श्राद्ध में 'स्वधा' के साथ प्रदत्त भोजन का पितृ लोक में रसास्वादन करता है। चाहे मृतात्मा (स्वर्ग में) देव के रूप में हो, या नरक में हो (यातनाओं के लोक में हो), या निम्न पशुओं की योनि में हो, या मानव रूप में हो, सम्बन्धियों के द्वारा श्राद्ध में प्रदत्त भोजन उसके पास पहुँचता है। जब श्राद्ध सम्पादित होता है तो मृतात्मा एवं श्राद्धकर्ता दोनों को तेज़ या सम्पत्ति या समृद्धि प्राप्त होती है।

जीव इस शरीर को छोड़कर देव या मनुष्य या पशु या सर्प आदि के रूप में अवस्थित हो जाता है तो इस स्थिति के लिए जो अनुमान उपस्थित किया गया है वह यह है कि श्राद्ध में जो अन्न-पान दिया जाता है, वह पितरों के उपयोग के लिए विभिन्न द्रव्यों में परिवर्तित हो जाता है। 

तब प्रश्न बनता है कि पितृगण विभिन्न स्थानों में मर सकते हैं और श्राद्ध बहुधा उन स्थानों से दूरस्थ स्थान पर किया जाता है। यदि दुष्कर्मों के कारण कोई पितर पशु रूप में परिवर्तित हो गये हैं, तो वह श्राद्ध में दिया अन्न उस तक कैसे पहुचेगा।

तब शास्त्र कहते है कि जैसे ही यहाँ उनके परिवार में किसी ने अग्नि में आहुति छोड़ी यदि वह पशु योनी में है और यदि मान लो बैल बन गया और खेत में बंधा है तो तुरंत रस्सी खुल जायेगी और वह चरने लगेगा उसी भांति तिर्यक सर्प पशु कीट सभी बन्धन मुक्त होकर सूक्ष्मदेह से अपना अंश ग्रहण कर लेते है ।

TTI News

Your Own Network

CONTACT : +91 9412277500


अब ख़बरें पाएं
व्हाट्सएप पर

ऐप के लिए
क्लिक करें

ख़बरें पाएं
यूट्यूब पर