मथुरा स्थित श्रीराजाधिराज मन्दिर का पूर्व वृत्त - 1

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  • Jeevan Mantra

।। श्रीद्वारकेशो जयति ।।

तृतीय गृह गौरवगान

 

प्रसंग:- 204

 

प्रस्तुति - श्रीधर चतुर्वेदी, पूर्व अधिकारी,

राजाधिराज ठाकुर श्री द्वारकाधीश जी महाराज मंदिर मथुरा

 

श्रीराजाधिराज मन्दिर के तृतीय गृह के अधिकार में आने की गौरवपूर्ण घटना के प्रसंग में हम आज से इस अति महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम के विस्तृत वर्णन का आरम्भ करते हैं।

 

कृष्णतुर्यप्रिया श्रीयमुनाजी के तट पर बसा हुआ, और सात मोक्षदायिनी पुरियों में से एक मथुरा नगर के केन्द्रस्थान पर स्थित श्रीराजाधिराज मन्दिर वैष्णव सम्प्रदाय का अति महत्त्वपूर्ण स्थान है। मथुरा की यात्रार्थ आनेवाला शायद ही कोई ऐसा यात्री होगा जिसने इस मन्दिर के दर्शन न किये हो। तृतीय पीठ के अधिकार में स्थित यह मन्दिर तृतीय पीठ के मन्दिरों में अपना एक विशेष महत्त्व रखता है। इस मन्दिर का इतिहास भी बहुत ही रोचक-रसप्रद है। तो आइए, 'कांकरोली इतिहास' में समाविष्ट वर्णन के आधार पर  उसका अवलोकन करते हैं।

 

बड़े आश्चर्य की बात है कि "श्रीराजाधिराज मन्दिर के मूल स्थापक श्रीगोकुलदासजी परीख नामक वणिक थे, जो गुजरात के बड़ौदा जिले के 'शिनोर' गाँव के मूल निवासी थे। वे तृतीय गृह के सेवक और ग्वालियर-नरेश दौलतराव सिंधिया के ख़जाञ्ची थे। महाराजा के प्रीतिपात्र होने के कारण राज्य के अन्य अधिकारी ईर्ष्यावश उन्हें नीचा दिखाने के प्रयासों में लगे रहते थे। ऐसे में एक बार उज्जैन के नागा साधुओं ने ग्वालियर राज्य के ख़िलाफ़ बगावत कर दी तब उस उपद्रव से निपटने की जिम्मेदारी महाराजा ने गोकुलदासजी को सौंपी। गोकुलदासजी ने उज्जैन जाकर नागा साधुओं को कठोर कार्रवाई के द्वारा हमेशा के लिए पस्त- हिम्मत कर दिये, और उनकी 20-22 करोड़ रुपयों की संपत्ति लेकर ग्वालियर लौटे। वह संपत्ति जब वे महाराजा को पेश करने लगे  तो महाराजा ने उसे दूषित धन समझकर उसे अस्वीकार किया, और वह सारा धन गोकुलदासजी के पास ही अलाहदा रखवा दिया।"

 

"गोकुलदासजी के पास मनीरामजी और चम्पारामजी नामक दो मुनीम रहा करते थे। मनीरामजी जयपुर राज्य के मालपुरा गाँव के सरावगी वणिक (खंडेलवाल) थे और बिलकुल निष्किंचन अवस्था में ग्वालियर आये थे। भाग्यवश वे श्रीगोकुलदासजी के परिचय में आये और उनके वहाँ मुनीम बन गये। अपने विवेक और बुद्धिकौशल के कारण वे श्रीगोकुलदासजी के अत्यंत विश्वासपात्र बन गये और उनके कारोबार के कर्ता-धर्ता हो गये। गोकुलदासजी की अपनी कोई सन्तान न होने के कारण मनीरामजी के घर पुत्रजन्म होने पर उन्होंने बड़ा उत्सव मनाया, और उस पुत्र का नाम लक्ष्मीचन्द रखा।"

 

आज यहीं पर विराम लेते हैं। कल के प्रसंग में गोकुलदासजी को श्रीप्रभु के स्वरूप की प्राप्ति की अद्भुत घटना का अवलोकन करेंगें। आज यहाँ श्रीराजाधिराज मन्दिर का चित्र प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसमें उसकी भव्यता-विशालता की झांकी हो रही है।

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