आज‬ का पंचांग

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  • Jeevan Mantra

रवींद्र कुमार

|।ॐ।|

आज‬ का पंचांग

 

तिथि.........अमावस्या०८:१०:४३

तिथि.........प्रथमा२९:१८:३८*(लीप)

वार...........बुधवार

पक्ष... .......कृष्ण

         

नक्षत्र.........माघ 

योग...........परिघ

राहु काल.....१२:२४--१४:०२

 

मास............भाद्रपद

ऋतु.............वर्षा

 

कलि युगाब्द....५१२२

विक्रम संवत्....२०७७

 

19   अगस्त   सं  2020

आज का दिन सभी के लिए मंगलमय हो

 

 

#हरदिनपावन*

 जन्मदिवस (19.08.1903)                         महासती रूपकंवर माता*

 

कुछ समय से सती के बारे में भ्रामक धारणा बन गयी है।लोग अपने पति के शव के साथ जलने वाली नारी को ही सती कहने लगे हैं, जबकि सत्य यह है कि इस प्रकार देहत्याग की परम्परा राजस्थान में तब पड़ी,जब विदेशी और विधर्मी मुगलों से युद्ध में बड़ी संख्या में हिन्दू सैनिक मारे जाते थे। उनकी पत्नियाँ शत्रुओं द्वारा भ्रष्ट होने के भय से अपनी देहत्याग देती थीं; यह परम्परा वैदिक नहीं है और समय के साथ ही समाप्त हो गयी।सच तो यह है कि जो नारी मन, वचन और कर्म से अपने पति,परिवार,समाज और धर्म पर दृढ़ रहे,उसे ही सती का स्थान दिया जाता था।अत:भारतीय धर्मग्रन्थों में सती सीता, सावित्री आदि की चर्चा होती रही है।वीरभूमि राजस्थान में ऐसी ही एक महासती रूपकँवर हुई. उनका जन्म जोधपुर जिले के रावणियाँ गाँव में 19अगस्त1903 (श्रीकृष्ण जन्माष्टमी) को हुआ.उनकी स्मृति में अब गाँव ‘रूपनगर’ कहलाता है.

रूपकँवर के पिता श्री लालसिंह तथा माता श्रीमती जड़ाव कँवर थीं। बचपन से ही उसकी रुचि धर्म एवं पूजा पाठ के प्रति बहुत थी।रूपकँवर के ताऊ श्री चन्द्रसिंह घर के बाहर बने शिवलिंग की पूजा में अपना अधिकांश समय बिताते थे।उनका प्रभाव रूपकँवर पर पड़ा।उन्हें वह अपना प्रथम गुरु मानती थीं. 10मई1919को रूपकँवर का विवाह बालागाँव के जुझार सिंह से हुआ;पर केवल 15 दिन बाद ही वह विधवा हो गयी।लेकिन रूपकँवर ने धैर्य नहीं खोया।उन्होंने पूरा जीवन विधवा की भाँति बिताने का निश्चय किया।वह भूमि पर सोती तथा एक समय भोजन करती थीं।घरेलू काम के बाद शेष समय वह भजन में बिताने लगीं. 15फर.1942कोउन्हें कुछ विशेष आध्यात्मिक अनुभूति हुई लोगों ने देखा कि उनकी वाणी से चमत्कार होने लगे हैं। उन्होंने गाँव के चम्पालाल व्यापारी के पुत्र गजराज तथा महन्त दर्शन राम जी को मृत्यु के बाद भी जिला दिया।यह देख लोग उन्हें जीवित सती माता मानकर ‘बापजी’ कहने लगे।वे अधिकांश समय मौन रहतीं।उन्होंने सन्त गुलाबदास जी महाराज से दीक्षा ली. और श्वेत वस्त्र धारण कर लिये।उन्होंने आहार लेना बन्द कर दिया।लोगों ने उनकी खूब परीक्षा ली; पर वे पवहारी बाबा की तरह बिना खाये पिये केवल हवा के सहारे ही जीवनयापन करती रहीं।उन्होंने दो बार तीर्थयात्रा भी की मान्यता यह है कि उन्हें भगवान शंकर ने दर्शन दिये थे।जिस स्थान पर उन्हें दर्शन हुए,वहाँ उन्होंने शिव मन्दिर बनवाया और 18जनवरी1948को उसमें मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की।उन्होंने एक अखण्ड ज्योति की स्थापना की,जो आज तक जल रही है उसकी विशेषता यह है कि बन्द आले में जलने के बादभी वहाँ काजल एकत्र नहीं होता।वे कभी पैसे को छूती नहीं थी,उनका कहना था कि इससे उन्हें बिच्छू के डंक जैसा अनुभव होता है। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद इनके भक्त थे.उनके आग्रह पर वे सात दिन राष्ट्रपति भवन में रहीं भोपालगढ़ में गोशाला के उद्घघाटन में हवन के लिए उन्होंने एक बछिया को दुह कर दूध निकाला. वह बछियाअगले14साल तक रोजाना एक लोटा दूध देती रही।ऐसी *महासती माता रूपकँवर ने पहले से ही निर्धारित घोषित दिन 16नव.1986(कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी,वि.सं.2043) को महासमाधि ले ली.सादर वंदन

 

 

#हरदिनपावन* 

बलिदानदिवस

*(19.08.2000)  देवनागरी के नवदेवता                                       बिनेश्वर ब्रह्म      

                                    श्री बिनरेश्वर ब्रह्म का जन्म 28 फरवरी1948 कोअसम मेंकोकराझार के पास भरतमुरी ग्राम में श्री तारामुनी,श्रीमती सानाथी ब्रह्म के घर में हुआ.*                    शुरू की शिक्षाअपने गांव से ही की.1965में कोकराझार से हाई स्कूल करते हुए उन्होंने ‘हिन्दी विशारद’ की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली.1971में असम की सभी स्थानीय भाषाओं के संरक्षण तथा संवर्धन के लिए हुए आंदोलन में वे 45दिन तक डिब्रूगढ़ जेल में भी रहे।प्रारम्भ में कुछ वर्ष वे डेबरगांव व कोकराझार में हिन्दी के अध्यापक रहे.1972में उन्होंने जोरहाट से कृषि विज्ञान में बी.एस-सी.की उपाधि प्राप्त की।इसके बाद वे कृषि विभाग की सरकारी सेवा में आये।कोकराझार तथा जोरहाट में पढ़ते समय वे उन विद्यालयों की छात्र इकाई के सचिव भी चुने गये।साहित्य के प्रति प्रेम होने के कारण उन्होंने गद्य और पद्य की कई पुस्तकों का सृजन किया।‘बोडो साहित्य सभा’में उनकी सक्रियता को देखकर उन्हें उसका सचिव,उपाध्यक्ष,फिर अध्यक्ष बनाया गया।असम में बोडो भाषा की लिपि के लिए कई बार आंदोलन हुए।श्री बिनेश्वर ब्रह्म ने सदा इसके लिए देवनागरी का समर्थन किया।उनके प्रयासों से इसे स्वीकार भी कर लिया गया;पर चर्च के समर्थक बार-बार इस विषय को उठाकर देवनागरी की बजाय रोमन लिपि लाने का प्रयास करते रहे।पूर्वोत्तर भारत सदा से ही चर्च के निशाने पर रहा है।वहां सैकड़ों आतंकी गिरोह कार्यरत हैं।उनमें से अधिकांश को देशी- विदेशी चर्च का समर्थन मिलता है।इनके ‘कमांडर’ तथा अधिकांश बड़े नेता ईसाई ही हैं।सरकारी अधिकारी, व्यापारी व उद्योगपतियों से फिरौती वसूलना इनका मुख्य धंधा है।इसी से इनकी तमाम अवैध गतिविधियां चलती हैं।ईसाई वोट खोने के भय से सेक्यूलरवादी राज्य और केन्द्र शासन भी इनके विरुद्ध कठोर कार्यवाही नहीं करते।

एन.डी.एफ.बी.(नेशनल डैमोक्रैटिक फ्रंट आॅफ बोडोलैंड)चर्चप्रेरित ऐसा ही एक उग्रवादी गिरोह है।यह बंदूक के बल पर बोडो जनजाति के लोगों को ईसाई बनाता है।अपनी मांगों को पूरा करने के लिए यह हत्या,अपहरण,बम विस्फोट तथा जबरन धन वसूली जैसे अवैध काम भी करता रहता है।यह गिरोह काफी समय से ‘स्वतन्त्र बोडोलैंड’ राज्य की मांग के लिए हिंसक आंदोलन कर रहा है;पर आम जनता इनके साथ नहीं है।श्री बिनेश्वर ब्रह्म ने अपने प्रयासों से कई बार इन उग्रवादी गुटों तथा असम सरकार में वार्ता कराई,जिससे समस्याओं का समाधान शांतिपूर्वक हो सके।देवनागरी के समर्थक होने के कारण श्री ब्रह्म को ईसाई उग्रवादियों की ओर से धमकी मिलती रहती थी;पर उन्होंने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया।वे देवनागरी को सभी भारतीय भाषाओं के बीच सम्बन्ध बढ़ाने वाला सेतु मानते थे। उनके प्रयास से बोडो पुस्तकें देवनागरी लिपि में छपकर लोकप्रिय होने लगीं।इससे उग्रवादी बौखला गये और 19अग.2000की रात में उनके निवास पर ही गोली वर्षा कर उनकी निर्मम हत्या कर दी.इस हत्याकांड के बाद एन.डी.एफ.बी.ने इसकी जिम्मेदारी लेते हुए श्रीबिनेश्वर ब्रह्म को BJP. 'भारतीय जनता पार्टी' का एजेंट बताया ।देवनागरी के माथे पर अपने लहू का तिलक लगाने वाले बलिदानी नवदेवता स्तुत्य हैं।सादर वंदन।नमन

 

 

#हरदिनपावन*

 जन्मदिवस       उत्तम साहित्य के प्रकाशक      पुरुषोत्तमदासमोदी

 

पुरुषोत्तम दास मोदी एक ऐसे प्रकाशक थे,जिन्होंने प्रकाशन व्यवसाय में अच्छी प्रतिष्ठा पायी। उनकाजन्म19अगस्त1928को गोरखपुर में हुआ.पुरुषोत्तम मास में जन्म लेेने से उनका यह नाम रखा गया     मोदी जी की रुचि छात्र जीवन से ही साहित्य में थी।उनकी सारी शिक्षा गोरखपुर में हुई।उन्होंने हिन्दी में एम.ए. किया।विद्यालयों के साहित्यिक- सांस्कृतिक कार्यक्रमों में वे सदा आगे रहते थे.1945में उनके संयोजन में सेण्ट एण्ड्रूज कालेज में विराट कवि सम्मेलन हुआ,जिसमें माखनलाल चतुर्वेदी,रामधारी सिंह दिनकर,सुभद्रा कुमारी चौहान,सुमित्रा कुमारी सिन्हा जैसे वरिष्ठ कवि पधारे।इसमें तब के युवा कवि धर्मवीर भारती, जगदीश गुप्त आदि ने भी काव्यपाठ किया।ऐसी गतिविधियों से मोदी जी का सम्पर्क तत्कालीन श्रेष्ठ साहित्यकारों से हो गया.1950में शिक्षा पूर्ण कर उन्होंने घरेलू वस्त्र व्यवसाय के बदले प्रकाशन व्यवसाय में हाथ डाला,चूँकि इससे उनकी साहित्यिक क्षुधा शान्त होती थी।उन्होंने नये और पुराने लेखकों से सम्पर्क किया.1956में उन्होंने शिवानी का प्रथम उपन्यास ‘चौदह फेरे’ प्रकाशित किया।फिर माखनलाल चतुर्वेदी और शिवानी के कथा संग्रह प्रकाशित किये।उन दिनों गोरखपुर में मुद्रण सम्बन्धी सुविधाएँ कम थीं।अतः1964में वे विद्या की नगरी काशी आ गये।यहाँ उन्होंने महामहोपाध्याय पं. गोपीनाथ कविराज, पं.बलदेव उपाध्याय, ठाकुर जयदेव सिंह, डा.मोतीचन्द,डा.भगीरथ मिश्र जैसे प्रतिष्ठित लेखकों की पुस्तकें छापीं ।इससे उनके संस्थान ‘विश्वविद्यालय प्रकाशन’ की प्रतिष्ठा में चार चाँद लग गये।अपनी प्रकाशन और प्रबन्ध क्षमता के कारण वे 'अखिल भारतीय प्रकाशक संघ' के लगातार दो बार महामन्त्री भी बने।मोदी जी का उद्देश्य केवल पैसा कमाना नहीं था।उनकी इच्छा थी कि व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध और श्रेष्ठ साहित्य जनता तक पहुँचे।इस हेतु वे स्वयं पुस्तकों के प्रूफ जाँचा करते थे।जो कार्य आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका के द्वारा किया,वही काम मोदी जी ने अपने प्रकाशन में रहते हुए किया.उन्होंने हजारों ग्रन्थों की भाषा शुद्ध की।मोदीजी बड़ेसिद्धान्तवादी व्यक्ति थे।जब उनकी माताजी का देहान्त हुआ,तो घर में ढेरों मेहमान आये थे।उन दिनों गैस की बड़ी समस्या थी।उनकी पत्नी ने पाँच रुपये अधिक देकर एक सिलेण्डर मँगा लिया।जब मोदी जी को यह पता लगा,तो उन्होंने तुरन्त कर्मचारी के हाथ वह गैस सिलेण्डर वापस भिजवाया।उनका सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं से भी बहुत लगाव था।काशी में हिन्दू सेवा सदन,मारवाड़ी अस्पताल,काशीगौशाला, मुमुक्ष भवन जैसी अनेक संस्थाओं को उन्होंने नवजीवन प्रदान किया।

अपने प्रकाशन की जानकारी सर्वदूर पहुँचाने के लिए उन्होंने ‘भारतीय वांगमय’ नामक एक मासिक लघु पत्रिका भी निकाली।इसमें उनके सम्पादकीय बहुत सामयिक हुआ करते थे। उन्होंने अन्तिम सम्पादकीय श्रीरामसेतु विवाद पर शासन को सद्बुद्धि देने के लिए लिखा था।कई रोगों से घिरे होने पर भी वे सदा सक्रिय रहते थे।सात अक्तूबर2007को उनका देहान्त हो गया।सादर वंदन नमन

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