तृतीय गृह त्रयोदश गृहाधीश श्रीव्रजभूषणलालजी महाराज(चतुर्थ) - 7

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प्रस्तुति : श्रीधर चतुर्वेदी

।।श्रीद्वारकेशो जयति।।

तृतीय गृह गौरवगान

प्रसंग:- 230

तृतीय गृह त्रयोदश गृहाधीश श्रीव्रजभूषणलालजी महाराज(चतुर्थ) - 7

मथुरा से लौटते समय कृष्णगढ़ में वहाँ के महाराजा द्वारा किये गये श्रद्धाभक्तिपूर्ण राजसी स्वागत और कांकरोली में विद्या विभाग की स्थापना का वृत्तांत कल के प्रसंग में हमने पढ़ा। आज विद्या विभाग की विविध गतिविधियों का परिचय प्राप्त कर, श्रीव्रजभूषणलालजी के उन प्रदेश-प्रवासों का संक्षिप्त विवरण देखेंगें, जिनमें उन्होंने शास्त्रार्थ की प्रक्रिया द्वारा न केवल संप्रदाय के सिद्धांतों का, अपितु सनातन हिन्दू धर्म के मूल तत्वों का सुनियोजित रूप से सार्थक प्रचार किया।

"इसी प्रकार विद्या विभाग ने संस्थान, जनता की सार्वदेशिक उन्नति तथा कांकरोली आनेवाले यात्री-समाज के ज्ञान-संवर्द्धन के लिए पूर्ण प्रचार किया है। फलस्वरूप श्रीद्वारकेश- पुस्तकालय, श्रीद्वा.चित्रशाला, श्रीद्वा. व्यायामशाला, श्रीद्वा.विश्ववस्तु- संग्रहालय, श्रीद्वा.कविमंडल, श्रीबालकृष्ण-विद्याभवन आदि दर्शनीय एवं उपयोगिनी कई संस्थाओं की स्थापना इसके द्वारा की गई है, और प्राचीन संस्कृत और हिन्दी-साहित्य की रक्षा अथच प्रकाशन के लिए सरस्वती-भंडार को सुव्यवस्थित कर श्रीद्वा.ग्रन्थमाला का आयोजन किया गया है।"

"कहने का तात्पर्य यह कि- महाराजश्री ने अपनी विद्याभिरुचि से इसको अपनी जोड़ की एक ही संस्था बनाई है, जो प्रतिदिन अपनी ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट करती चली जाती है। क्या भारतीय, क्या पाश्चात्य विद्वान् सभी ने- जिन्होंने इसका निरीक्षण किया है, इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए अच्छे अभिमत अभिप्राय लिखे हैं।"

"सं.1985 के आषाढ़ मास में जब महाराजश्री धार्मिक प्रचार करते हुए मध्यप्रदेश बुरहानपुर गये, तब वहाँ के वैष्णव-समाज ने उनका स्वागत-सत्कार कर अपनी दृढ़ भक्ति का पूर्ण परिचय दिया। यहाँ धार्मिक सभाओं की बहुलता से चिढ़कर आर्यसमाज ने विद्या विभाग के शास्त्रियों के साथ शास्त्रार्थ छेड़ दिया, जिसमें कई दिनों तक दोनों ओर से अपने-अपने सिद्धान्त-प्रचार की चर्चा चलती रही। अन्त में आर्यसमाज प्रत्यक्ष शास्त्रार्थ करने में आनाकानी कर गया और उसका वातावरण व्याख्यानों द्वारा ही समाप्त हो गया। इसके प्रथम बंबई के आर्यसमाज से भी विद्या विभाग का शास्त्रार्थ का प्रसंग आ चुका था, और बाद में डभोई में सार्वजनिक सभा में भी कुछ रामानुज संप्रदायानुयायियों के साथ भी। पर यह सब अविरोधी धार्मिक प्रचार के द्वारा शांत कर दिया गया। इस प्रकार महाराजश्री ने अपने यात्रा-प्रसंग में स्वयं और अपने शास्त्रियों द्वारा धार्मिक समाज में फैलनेवाले भ्रम को दूर किया और उसके लिए स्थान-स्थान पर शिक्षा-प्रसार की योजना को प्रचारित किया।"

अपने आचार्यत्व की प्रत्यक्ष प्रतीति करानेवाले श्रीव्रजभूषणलालजी के सार्थक यात्रा-प्रवासों का विवरण, विस्तारभय से आज यहाँ अपूर्ण छोड़ना पड़ रहा है, जिसे कल आगे बढ़ायेंगें। श्रीप्रभु का अलौकिक वीर्य धर्म यहाँ संप्रदाय के सिद्धांतों के प्रचार हेतु किये जा रहे पुरुषार्थ के रूप में प्रकट होता स्पष्टतः प्रतीत होता है।

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