आज‬ का पंचांग - प्रस्तुति - रवींद्र कुमार, प्रसिद्ध वास्तु एवं रत्न विशेषज्ञ ज्योतिषी (राया वाले)

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  • Jeevan Mantra

प्रस्तुति - रवींद्र कुमार 

प्रसिद्ध वास्तु एवं रत्न विशेषज्ञ ज्योतिषी (राया वाले)

आज‬ का पंचांग

 

तिथि...................एकादशी सुबह 10:04 तक तत्पश्चात द्वादशी

 

वार.....................शुक्रवार

पक्ष.....................कृष्ण

   

नक्षत्र......................चित्रा सुबह 08:48 तक तत्पश्चात स्वाती

योग........................शोभन शाम 03:52 तक तत्पश्चात अतिगण्ड

राहुकाल...................प्रात: 11:11 से दोपहर 12:32 तक

मास......................मार्गशीर्ष 

ऋतु......................हेमंत 

अयन....................दक्षिणायन

 

कलि युगाब्द........5122

विक्रम संवत्........2077

शक संवत ..........1942

संवत्सर..............प्रमादी

 

सृष्टियाब्द.............15,55,21,17,29,49,122

कल्पाब्द..............1,17,29,49,122

सृष्टि संवत्............1,95,58,85

दिशाशूल..............पश्चीम दिशा से

 

सूर्योदय...............6:56

सूर्यास्त...............5:15  (सूर्योदय और सूर्यास्त का समय विभिन्न स्थानों में भिन्न होता है)

व्रत/पर्व विवरण.....त्रिस्पृशा-उत्पत्ति एकादशी (भागवत), द्वादशी क्षय तिथि

 

11 दिसंबर 2020

आज का दिन हम सभी के लिये मंगलमय हो।

 

 

 

 

11 दिसम्बर/जन्म-दिवस                  

 

रामभक्त लक्ष्मण माधव देशपांडे

 

संघ में कई कार्यकर्ता ऐसे हुए हैं, जिन्होंने मार्ग की बाधाओं को धैर्यपूर्वक पार कर संघ कार्य किया है। श्री लक्ष्मण माधव देशपांडे ऐसे ही एक कार्यकर्ता थे। उनका प्रचलित नाम बाबूराव देशपांडे था। उनका जन्म 11 दिसम्बर, 1913 को ग्राम मंगरूल दस्तगीर (जिला अमरावती, महाराष्ट्र) में हुआ था। कक्षा आठ तक की शिक्षा उन्होंने अपनी बड़ी बहिन के पास आर्वी में रहकर पायी थी। वहीं उनका साक्षात्कार संघ के संस्थापक पूज्य डा0 हेडगेवार से हुआ।

 

आगे पढ़ने के लिए वे नागपुर आ गये तथा वहां धंतोली शाखा में जाने लगे। वहां श्री मोरोपंत पिंगले से वे बहुत प्रभावित हुए। 1938 में उन्होंने संघ का तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण पूरा किया। उनकी इच्छा प्रचारक बन कर संघ कार्य करने की थी; पर उसी वर्ष उनके पिताजी का देहांत हो गया। घर में सबसे बड़े होने के कारण पूरे परिवार की जिम्मेदारी उन पर आ गयी।

 

बाबूराव के छोटे भाई नेत्रहीन थे; पर कुछ समय बाद उन्हें नागपुर में एक नौकरी मिल गयी और पूरा परिवार नागपुर आ गया। घर की स्थिति सुधरते ही 1941 में उन्होंने अपने संकल्प के अनुसार प्रचारक बनकर घर छोड़ दिया। 

 

उन्हें वर्धा जिले का प्रचारक नियुक्त किया गया। 1945 में उन्हें बिहार भेजा गया। वहां छपरा, आरा, छोटा नागपुर आदि में उन्होंने 10 वर्ष तक काम किया। बिहार के बाद उन्हें उड़ीसा में संबलपुर विभाग प्रचारक का दायित्व मिला। श्री गुरुजी के प्रवास के समय वहां बाबूराव ने बहुत सुंदर रेखांकन किया। इस पर श्री गुरुजी ने कहा, लगता है संबलपुर में वर्धा अवतीर्ण हो गया है।

 

1964 में राउरकेला के जातीय दंगों में वे तीन मास तक जेल में और फिर तड़ीपार रहे। वहां वे अपना भोजन स्वयं बनाते थे। मराठी भोजन का आनंद लेने के लिए कभी-कभी जेल के अधिकारी भी उसमें सहभागी हो जाते थे। आपातकाल में भी वे संबलपुर जेल में रहे। इसके बाद वे पुरी विभाग प्रचारक, प्रांत संपर्क प्रमुख और फिर कटक के प्रांतीय कार्यालय पर भी रहे। उत्कल में उन दिनों संघ का काम प्रारम्भिक स्थिति में था। परिवारों में भोजन की व्यवस्था नहीं हो पाती थी। ऐसे में वे अपने तथा कार्यालय में उपस्थित सभी लोगों के लिए रुचिपूर्वक मराठी शैली का भोजन बनाते थे। 

 

1967 में उड़ीसा में पहली बार अलग से संघ शिक्षा वर्ग करने की अनुमति मिली; पर केन्द्रीय अधिकारियों की शर्त थी कि संख्या 100 से कम न रहे। बाबूराव के विभाग में स्थित झारसुगड़ा में यह वर्ग हुआ। उनकी देखरेख में व्यवस्था तो अच्छी थी ही; पर संख्या का लक्ष्य भी पूरा हुआ। 

 

उस वर्ग में एक बार भारी वर्षा से बौद्धिक पंडाल गिर गया; पर बाबूराव ने रात भर परिश्रम कर उसे फिर से खड़ा किया तथा गीली भूमि पर चूना डालकर उसे बैठने लायक बना दिया। इसके बाद भी उन्होंने विश्राम लिये बिना अगले दिन के सब निर्धारित कार्यक्रम पूरे किये।

 

श्री रामजन्मभूमि के लिए हुई प्रथम कारसेवा में वे काफी वृद्ध होने के बावजूद अपने गांव मंगरूल से अयोध्या तक पैदल गये। पूछने पर वे कहते थे - श्री राम से मिलने के लिए जाना लक्ष्मण का स्वाभाविक कर्तव्य है। 

 

उड़ीसा के प्रथम प्रांत प्रचारक श्री बाबूराव पालधीकर के देहांत के बाद वे नागपुर के केन्द्रीय कार्यालय, डा0 हेडगेवार भवन में आ गये। 96 वर्ष की आयु में 14 मई, 2009 को नागपुर में ही उनका देहांत हुआ। उनकी इच्छानुसार उनके नेत्र दान कर दिये गये। बाबूराव देशपांडे स्वभाव से व्यवस्था प्रिय तथा स्वावलम्बी थे। वे सदा शुभ्र वेष पहनते थे। उन्होंने जीवन भर स्वदेशी व्रत का पालन किया। उड़ीसा के कार्यकर्ताओं पर उनके व्यवहार और कार्यशैली की अमिट छाप है। 

 

 

 

11 दिसम्बर/जन्म-दिवस                  

 

कर्मठ कार्यकर्ता बालासाहब देवरस

 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कार्यपद्धति के निर्माण एवं विकास में जिनकी प्रमुख भूमिका रही है, उन श्री मधुकर दत्तात्रेय देवरस का जन्म 11 दिसम्बर, 1915 को नागपुर में हुआ था। वे बालासाहब के नाम से अधिक परिचित हैं। वे ही आगे चलकर संघ के तृतीय सरसंघचालक बने। 

 

बालासाहब ने 1927 में शाखा जाना शुरू किया। धीरे-धीरे उनका सम्पर्क डा0 हेडगेवार से बढ़ता गया। उन्हें मोहिते के बाड़े में लगने वाली सायं शाखा के ‘कुश पथक’ में शामिल किया गया। इसमें विशेष प्रतिभावान छात्रों को ही रखा जाता था। बालासाहब खेल में बहुत निपुण थे। कबड्डी में उन्हें विशेष मजा आता था; पर वे सदा प्रथम श्रेणी पाकर उत्तीर्ण भी होते थे। 

 

बालासाहब देवरस बचपन से ही खुले विचारों के थे। वे कुरीतियों तथा कालबाह्य हो चुकी परम्पराओं के घोर विरोधी थे। उनके घर पर उनके सभी जातियों के मित्र आते थे। वे सब एक साथ खाते-पीते थे। प्रारम्भ में उनकी माताजी ने इस पर आपत्ति की; पर बालासाहब के आग्रह पर वे मान गयीं। 

 

कानून की पढ़ाई पूरी कर उन्होंने नागपुर के ‘अनाथ विद्यार्थी वसतिगृह’ में दो वर्ष अध्यापन किया। इन दिनों वे नागपुर के नगर कार्यवाह रहे। 1939 में वे प्रचारक बने, तो उन्हें कोलकाता भेजा गया; पर 1940 में डा. हेडगेवार के देहान्त के बाद उन्हें वापस नागपुर बुला लिया गया। 1948 में जब गांधी हत्या का झूठा आरोप लगाकर संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया, तो उसके विरुद्ध सत्याग्रह के संचालन तथा फिर समाज के अनेक प्रतिष्ठित लोगों से सम्पर्क कर उनके माध्यम से प्रतिबन्ध निरस्त कराने में बालासाहब की प्रमुख भूमिका रही।

 

1940 के बाद लगभग 30-32 साल तक उनकी गतिविधियों का केन्द्र मुख्यतः नागपुर ही रहा। इस दौरान उन्होंने नागपुर के काम को आदर्श रूप में खड़ा किया। देश भर के संघ शिक्षा वर्गों में नागपुर से शिक्षक जाते थे। नागपुर से निकले प्रचारकों ने देश के हर प्रान्त में जाकर संघ कार्य खड़ा किया। 

 

1965 में वे सरकार्यवाह बने। शाखा पर होने वाले गणगीत, प्रश्नोत्तर आदि उन्होंने ही शुरू कराये। संघ के कार्यक्रमों में डा0 हेडगेवार तथा श्री गुरुजी के चित्र लगते हैं। बालासाहब के सरसंघचालक बनने पर कुछ लोग उनका चित्र भी लगाने लगे; पर उन्होंने इसे रोक दिया। यह उनकी प्रसिद्धि से दूर रहने की वृत्ति का ज्वलन्त उदाहरण है।

 

1973 में श्री गुरुजी के देहान्त के बाद वे सरसंघचालक बने। 1975 में संघ पर लगे प्रतिबन्ध का सामना उन्होंने धैर्य से किया। वे आपातकाल के पूरे समय पुणे की जेल में रहे; पर सत्याग्रह और फिर चुनाव के माध्यम से देश को इन्दिरा गांधी की तानाशाही से मुक्त कराने की इस चुनौती में संघ सफल हुआ। मधुमेह रोग के बावजूद 1994 तक उन्होंने यह दायित्व निभाया। 

 

इस दौरान उन्होंने संघ कार्य में अनेक नये आयाम जोड़े। इनमें सबसे महत्वपूर्ण निर्धन बस्तियों में चलने वाले सेवा के कार्य हैं। इससे वहाँ चल रही धर्मान्तरण की प्रक्रिया पर रोक लगी। स्वयंसेवकों द्वारा प्रान्तीय स्तर पर अनेक संगठनों की स्थापना की गयी थी। बालासाहब ने वरिष्ठ प्रचारक देकर उन सबको अखिल भारतीय रूप दे दिया। मीनाक्षीपुरम् कांड के बाद एकात्मता यात्रा तथा फिर श्रीराम मंदिर आंदोलन के दौरान हिन्दू शक्ति का जो भव्य रूप प्रकट हुआ, उसमें इन सब संगठनों के काम और प्रभाव की व्यापक भूमिका है।

 

जब उनका शरीर प्रवास योग्य नहीं रहा, तो उन्होंने प्रमुख कार्यकर्ताओं से परामर्श कर यह दायित्व मा0 रज्जू भैया को सौंप दिया। 17 जून, 1996 को उन्होंने अन्तिम श्वास ली। उनकी इच्छानुसार उनका दाहसंस्कार रेशीमबाग की बजाय नागपुर में सामान्य नागरिकों के शमशान घाट में किया गया।

 

 

 

11 दिसम्बर/पुण्य-तिथि

 

बंगाल की प्रथम शाखा के स्वयंसेवक कालिदास बसु

 

कोलकाता उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता तथा पूर्वोत्तर भारत में संघ कार्य के एक प्रमुख स्तम्भ श्री कालिदास बसु (काली दा) का जन्म 1924 ई. की विजयादशमी पर फरीदपुर (वर्तमान बांग्लादेश) में हुआ था। 1939 में कक्षा नौ में पढ़ते समय उन्होंने पहली बार श्री बालासाहब देवरस का बौद्धिक सुना, जो उन दिनों नागपुर से बंगाल में शाखा प्रारम्भ करने के लिए आये थे। इस बौद्धिक से प्रभावित होकर वे नियमित शाखा जाने लगे। 

 

इसके बाद तो बालासाहब और उनके बाद वहां आने वाले सभी प्रचारकों से उनकी घनिष्ठता बढ़ती गयी। 1940 में वे संघ शिक्षा वर्ग में भाग लेने नागपुर गये। श्री गुरुजी उस वर्ग में कार्यवाह थे। पूज्य डा. हेडगेवार ने वहां अपने जीवन का अंतिम बौद्धिक दिया था। इन दोनों महामानवों के पुण्य सान्निध्य से काली दा के जीवन में संघ-विचार सदा के लिए रच-बस गया।

 

कक्षा 12 की परीक्षा देकर वे बंगाल की सांस्कृतिक नगरी नवद्वीप में विस्तारक बन कर आ गये। यहां रहकर वे संघ कार्य के साथ ही अपनी पढ़ाई भी करते रहे। उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था। लोगों में बड़ी दहशत फैली थी। जापानी बमबारी के भय से कोलकाता तथा अन्य बड़े नगरों से लोग घर छोड़-छोड़कर भाग रहे थे। बंगाल में उन दिनों संघ कार्य बहुत प्रारम्भिक अवस्था में था; पर समाज में साहस बनाये रखने में संघ के सभी कार्यकर्ताओं ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। काली दा भी इनमें अग्रणी रहे।

 

शिक्षा पूर्ण कर काली दा नवद्वीप में ही जिला प्रचारक बनाये गये। कुछ समय बाद देश का विभाजन हो गया और बंगाल का बड़ा हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान बन गया। बड़ी संख्या में हिन्दू लुटपिट कर भारतीय बंगाल में आने लगे। संघ ने ऐसे लोगों की भरपूर सहायता की। काली दा दो वर्ष तक नवद्वीप में ही रहकर इन सब कामों की देखभाल करते रहे। इसके बाद 1949 में उन्हें महानगर प्रचारक के नाते कोलकाता बुला लिया गया।

 

1952 तक प्रचारक रहने के बाद उन्होंने फिर से शिक्षा प्रारम्भ कर कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की और कोलकाता उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे। एक सफल वकील के नाते उन्होंने भरपूर ख्याति अर्जित की। संघ कार्य में  लगातार सक्रिय रहने से उनके दायित्व भी क्रमशः बढ़ते गये। 

 

महानगर कार्यवाह, प्रान्त कार्यवाह, प्रान्त संघचालक, क्षेत्र संघचालक और फिर केन्द्रीय कार्यकारिणी के वे सदस्य रहे। इसके साथ ही वे अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद के मार्गदर्शक तथा कोलकाता में विधान नगर विवेकानंद केन्द्र के उपसभापति थे। उन्होंने रामकृष्ण मिशन से विधिवत दीक्षा भी ली थी।

 

बंगाल में राजनीतिक रूप से कांग्रेस और वामपंथियों के प्रभाव के कारण स्वयंसेवकों को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इन बाधाओं में काली दा सदा चट्टान बनकर खड़े रहे। वे कोलकाता से प्रकाशित होने वाले हिन्दू विचारों के साप्ताहिक पत्र ‘स्वस्तिका’ के न्यासी थे। 

 

पूर्वोत्तर भारत को प्रायः बाढ़, तूफान तथा चक्रवात जैसी आपदाओं का सामना करना पड़ता है। स्वयंसेवक ऐसे में ‘वास्तुहारा सहायता समिति’ के नाम से धन एवं सहायता सामग्री एकत्र कर सेवा कार्य करते हैं। काली दा इस समिति में भी सक्रिय रूप से जुड़े थे। 

 

स्वयं सक्रिय रहने के साथ ही उन्होंने अपने परिवारजनों को भी संघ विचार से जोड़ा। उनकी पत्नी श्रीमती प्रतिमा बसु राष्ट्र सेविका समिति की प्रांत संचालिका थीं। ऐसे निष्ठावान कार्यकर्ता कालिदास बसु का 11 दिसम्बर, 2010 को न्यायालय में अपने कक्ष में हुए भीषण हृदयाघात से देहावसान हुआ।

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