आज‬ का पंचांग

Subscribe






Share




  • Jeevan Mantra

रवींद्र कुमार

 

|।ॐ।|

 

तिथि.........अष्टमी(११:१६)

वार...........बुधवार

पक्ष... .......कृष्ण

         

नक्षत्र.........कृतिका

योग...........वृद्ध

राहु काल.....१२:२६--१४:०५

 

मास............भाद्रपद

ऋतु.............वर्षा

 

कलि युगाब्द....५१२२

विक्रम संवत्....२०७७

 

12   अगस्त   सं  2020

*जहारवीर गोगा जयंती*

*श्री कृष्ण जन्माष्टमी(वैष्णव)*

*आज का दिन सभी के लिए मंगलमय हो*

 

#हर_दिन_पावन

"12 अगस्त/जन्म-दिवस"

*महान वैज्ञानिक  डा. विक्रम साराभाई*

 

जिस समय देश अंग्रेजों के चंगुल से स्वतन्त्र हुआ, तब भारत में विज्ञान सम्बन्धी शोध प्रायः नहीं होते थे। गुलामी के कारण लोगों के मानस में यह धारणा बनी हुई थी कि भारतीय लोग प्रतिभाशाली नहीं है। शोध करना या नयी खोज करना इंग्लैण्ड, अमरीका, रूस, जर्मनी, फ्रान्स आदि देशों का काम है। इसलिए मेधावी होने पर भी भारतीय वैज्ञानिक कुछ विशेष नहीं कर पा रहे थे।

 

पर स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश का वातावरण बदला। ऐसे में जिन वैज्ञानिकों ने अपने परिश्रम और खोज के बल पर विश्व में भारत का नाम ऊँचा किया, उनमें डा. विक्रम साराभाई का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उन्होंने न केवल स्वयं गम्भीर शोध किये, बल्कि इस क्षेत्र में आने के लिए युवकों में उत्साह जगाया और नये लोगों को प्रोत्साहन दिया। भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. कलाम ऐसे ही लोगों में से एक हैं।

 

डा. साराभाई का जन्म 12 अगस्त, 1919 को कर्णावती (अमदाबाद, गुजरात) में हुआ था। पिता श्री अम्बालाल और माता श्रीमती सरला बाई ने विक्रम को अच्छे संस्कार दिये। उनकी शिक्षा माण्टसेरी पद्धति के विद्यालय से प्रारम्भ हुई। इनकी गणित और विज्ञान में विशेष रुचि थी। वे नयी बात सीखने को सदा उत्सुक रहते थे। श्री अम्बालाल का सम्बन्ध देश के अनेक प्रमुख लोगों से था। रवीन्द्र नाथ टैगोर, जवाहरलाल नेहरू, डा. चन्द्रशेखर वेंकटरामन और सरोजिनी नायडू जैसे लोग इनके घर पर ठहरते थे। इस कारण विक्रम की सोच बचपन से ही बहुत व्यापक हो गयी।

 

डा. साराभाई ने अपने माता-पिता की प्रेरणा से बालपन में ही यह निश्चय कर लिया कि उन्हें अपना जीवन विज्ञान के माध्यम से देश और मानवता की सेवा में लगाना है। स्नातक की शिक्षा के लिए वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय गये और 1939 में ‘नेशनल साइन्स ऑफ ट्रिपोस’ की उपाधि ली। द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ने पर वे भारत लौट आये और बंगलौर में प्रख्यात वैज्ञानिक डा. चन्द्रशेखर वेंकटरामन के निर्देशन में प्रकाश सम्बन्धी शोध किया। इसकी चर्चा सब ओर होने पर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.एस-सी. की उपाधि से सम्मानित किया। अब उनके शोध पत्र विश्वविख्यात शोध पत्रिकाओं में छपने लगे।

 

अब उन्होंने कर्णावती (अमदाबाद) के डाइकेनाल और त्रिवेन्द्रम स्थित अनुसन्धान केन्द्रों में काम किया। उनका विवाह प्रख्यात नृत्यांगना मृणालिनी देवी से हुआ। उनकी विशेष रुचि अन्तरिक्ष कार्यक्रमों में थी। वे चाहते थे कि भारत भी अपने उपग्रह अन्तरिक्ष में भेज सके। इसके लिए उन्होंने त्रिवेन्द्रम के पास थुम्बा और श्री हरिकोटा में राकेट प्रक्षेपण केन्द्र स्थापित किये।

 

डा. साराभाई भारत के ग्राम्य जीवन को विकसित देखना चाहते थे। ‘नेहरू विकास संस्थान’ के माध्यम से उन्होंने गुजरात की उन्नति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वह देश-विदेश की अनेक विज्ञान और शोध सम्बन्धी संस्थाओं के अध्यक्ष और सदस्य थे। अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त करने के बाद भी वे गुजरात विश्वविद्यालय में भौतिकी के शोध छात्रों को सदा सहयोग करते रहे।

 

डा. साराभाई 20 दिसम्बर, 1971 को अपने साथियों के साथ थुम्बा गये थे। वहाँ से एक राकेट का प्रक्षेपण होना था। दिन भर वहाँ की तैयारियाँ देखकर वे अपने होटल में लौट आये; पर उसी रात में अचानक उनका देहान्त हो गया।

 

 

#हर_दिन_पावन

"12 अगस्त/जन्म-दिवस"

*देह एवं सम्पत्तिदानी रामजीदास शर्मा*

 

भारतीय मजदूर संघ में कार्यरत, संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री रामजीदास शर्मा का जन्म 12 अगस्त, 1931 को नूरमहल (जालंधर, पंजाब) में हुआ था। श्री छज्जूराम कटवाल उनके पिता तथा श्रीमती चंद्रकांता देवी उनकी माता थीं। नौ भाई-बहिनों वाले परिवार में रामजीदास जी आठवें नंबर पर थे।

 

लाहौर में कार्यरत अपने बड़े भाई के पास रहते हुए वे 1942-43 में स्वयंसेवक बने। अपने बड़े भाइयों के साथ उन दिनों होने वाली प्रभात फेरियों में भी वे जाते थे। शिक्षा पूरी कर उन्होंने कुछ वर्ष सेना में काम किया। विभाजन के समय हिन्दुओं को बचाकर सुरक्षित भारत पहुंचाने में स्वयंसेवकों की बड़ी भूमिका रही। रामजीदास जी भी इसमें पूरी तरह सक्रिय थे। शत्रुओं से टक्कर लेने के लिए अस्त्र-शस्त्रों के संग्रह से लेकर विस्फोटकों का निर्माण जैसे काम स्वयंसेवकों ने किये। उस दौरान एक बार उनके पैर के पास बम फट गया। इससे उनके पैर काले पड़ गये, जो फिर जीवन भर ऐसे ही रहे।

 

रामजीदास जी का प्रचारक जीवन 1954 में उत्तर प्रदेश से प्रारम्भ हुआ।  वे कुछ समय मध्य प्रदेश में भी रहे। शुरू में उन्होंने ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ में काम किया। इस दौरान प्रचारक बैठकों में आते-जाते उनका श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी से अच्छा सम्पर्क हो गया। अतः 1966 में जब वामपंथियों के गढ़ बंगाल में ‘भारतीय मजदूर संघ’ का काम प्रारम्भ हुआ, तो उन्हें मजदूर संघ की राज्य इकाई का संगठन मंत्री बनाकर वहां भेज दिया गया।

 

1967 में वहां वामपंथियों की सरकार बनी। हिंसा और विदेशी विचारों पर आधारित कम्यूनिस्ट पार्टी अपना एक नंबर का शत्रु देशभक्त संघ वालों को ही मानती रही है। अतः वामपंथियों के शासन में भारतीय मजदूर संघ सहित संघ विचार के सभी संगठनों के कार्यकर्ताओं को भारी कष्ट उठाने पड़े। 

 

संघर्षशील होने के कारण रामजीदास जी ने वहां वामपंथियों से हर मोर्चे पर टक्कर ली तथा सभी जगह भारतीय मजदूर संघ की सशक्त यूनियनें स्थापित कीं। वे बंगला भाषा सीखकर शीघ्र ही कार्यकर्ताओं तथा आम लोगों के बीच घुलमिल गये। उनके द्वारा स्थापित मजबूत संगठन ही आज भी वहां काम का आधार बना है। कुछ समय उन्होंने केरल तथा कोंकण में भी काम किया।

 

भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ताओं को मजदूरों के हित में शासन-प्रशासन से तालमेल बनाने का काम भी करना पड़ता है। ऐसी अधिकांश गतिविधियां देश की राजधानी दिल्ली से ही संचालित होती हैं। रामजीदास जी के व्यापक अनुभव को देखते हुए उन्हें 1996 में दिल्ली के केन्द्रीय कार्यालय का व्यवस्था प्रमुख बनाया गया। इस जिम्मेदारी को उन्होंने मृत्युपर्यन्त निभाया।

 

बहुभाषी रामजीदास जी हिन्दी, अंग्रेजी, पंजाबी, बंगला और संस्कृत में सहजता से बात कर लेते थे। वे हर काम पूर्ण मनोयोग से करते थे। इसलिए कठिनाई के बावजूद उन्हें हर जगह सफलता मिलती थी। ‘नहीं’ और ‘असंभव’ शब्द उनके शब्दकोश में नहीं थे। वे अपनी बात सदा निर्भीक होकर कहते थे। कार्यकर्ताओं के दुख-सुख में शामिल होकर वे शीघ्र ही उन्हें अपना बना लेते थे। अतः कार्यकर्ता भी उनके कंधे से कंधा मिलाकर काम में लग जाते थे।

 

रामजीदास जी का अपना जीवन तो संघमय था ही; पर उन्होंने अपने परिजनों को भी संघ से जोड़कर रखा। उन्होंने नूरमहल का अपना पैतृक मकान संघ कार्यालय के लिए दान कर दिया। सात नवम्बर, 2015 को उन्होंने दिल्ली में भारतीय मजदूर संघ के पहाड़गंज स्थित कार्यालय में अंतिम सांस ली। उन्होंने अपने देहदान का संकल्प पत्र भरा था। अतः उनकी इच्छानुसार ‘दधीचि देहदान समिति’ के माध्यम से उनकी देह चिकित्सा विज्ञान के छात्रों के व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए ‘मौलाना आजाद मैडिकल काॅलिज’ को दे दी गयी।

 

 

#हर_दिन_पावन

"12 अगस्त/पुण्य-तिथि"

*असमय निर्वाण मनोज कुमार सिंह*

 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आकर प्रायः सबके स्वभाव और कार्यशैली में परिवर्तन होता है। कई लोगों के तो जीवन का लक्ष्य ही बदल जाता है। कानपुर के विभाग प्रचारक श्री मनोज कुमार सिंह भी इसके अपवाद नहीं थे। उनका जन्म 1973 की श्रीराम नवमी पर ग्राम खखरा (जिला हरदोई, उ.प्र.) में हुआ था। इनके पिता श्री शिवराज सिंह तथा माता श्रीमती रामदेवी थीं। छह भाई-बहिनों में मनोज जी का नंबर पांचवा था।

 

प्राथमिक शिक्षा अपने गांव के निकट प्राथमिक विद्यालय, बौसरा से पूरी कर उन्होंने कक्षा छह से बारह तक की शिक्षा आदर्श कृष्ण इंटर क१लिज, भदैंचा (हरदोई) से प्राप्त की। इस काल में ही उनका सम्पर्क 'अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद' से हुआ। उनकी नेतृत्व क्षमता, हिन्दुत्व निष्ठा तथा वैचारिक दृढ़ता देखकर उन्हें उस विद्यालय का प्रमुख बनाया गया। विद्यार्थी परिषद के माध्यम से ही फिर उनका सम्पर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हुआ।

 

मनोज जी को विद्यार्थी परिषद और फिर संघ से जोड़ने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले रामगोपाल जी के अनुसार मनोज जी प्रारम्भ में घोर अव्यवस्थित स्वभाव के थे। चाय के कप और झूठे बर्तन कमरे में कई दिन पड़े रहते थे; पर जब संघ वाले उनके कमरे पर आने लगे, तो उनका स्वभाव बदला। एक-दो बार तो रामगोपाल जी ने ही उनके साथ मिलकर कमरा साफ कराया। इससे उनका संघ कार्य के प्रति आकर्षण और बढ़ गया।

 

1993 में बी.ए. करने के बाद वे विद्यार्थी विस्तारक होकर लखनऊ के पास मोहनलाल गंज में आये। 1995 में वे ललितपुर में नगर प्रचारक, 1996 में जिला प्रचारक और फिर 1998 में हमीरपुर में जिला प्रचारक बने। इसी दौरान उन्होंने संघ के तीनों वर्ष के प्रशिक्षण भी पूरे किये। 2004 में वे फर्रुखाबाद में सह विभाग प्रचारक और 2005 में विभाग प्रचारक बने।

 

अन्तर्मुखी होने के कारण वे बोलते कम ही थे। उनके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। पिताजी का देहांत हो चुका था। दोनों बड़े भाई अपनी गृहस्थी में व्यस्त तथा परिवार के प्रति उदासीन थे। एक बड़ी बहिन की आयु 35 वर्ष हो चुकी थी; पर घरेलू कारणों से उसका विवाह नहीं हो पा रहा था। ऐसे में मनोज जी ने ही यह जिम्मेदारी ली और उसका विवाह कराया।

 

2007 में मनोज जी कानपुर में विभाग प्रचारक थे। 12 अगस्त की शाम को जयनारायण विद्यालय में छात्रों का एक कार्यक्रम था। वहां बातचीत करते हुए बहुत देर हो गयी। रात के नौ बज गये। भोजन पहले से कहीं निश्चित नहीं था। भूख काफी तेज थी, अतः वे भोजन के लिए एक ढाबे में चले गये। 

वहां से वापस लौटते समय सड़क के एक गढ्ढे में मोटर साइकिल का अगला पहिया पड़ जाने से संतुलन बिगड़ गया और एक ट्रक से टक्कर हो गयी। टक्कर खाकर मनोज जी ऐसे गिरे कि वहीं उनका प्राणांत हो गया।

 

बहुत समय तक तो किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया। कुछ देर बाद वहां से निकल रहा एक पुलिस अधिकारी यह देखकर रुका। तभी मनोज जी की जेब में रखा मोबाइल फोन बजा। पुलिस अधिकारी ने फोन करने वाले को बताया कि तुमने जिसे फोन किया है, उसकी दुर्घटना में मृत्यु हो चुकी है। इस प्रकार इस दुर्घटना की जानकारी सबको मिली। लोग दौड़कर वहां पहुंचे; पर वहां मनोज जी की बजाय उनका शव ही मिला।

 

इस प्रकार एक नवयुवक प्रचारक असमय काल-कवलित हुआ। शायद नियति ने उनके लिए इतनी ही सेवा निर्धारित की थी।

TTI News

Your Own Network

CONTACT : +91 9412277500


अब ख़बरें पाएं
व्हाट्सएप पर

ऐप के लिए
क्लिक करें

ख़बरें पाएं
यूट्यूब पर