आज‬ का पंचांग : प्रस्तुति - रवींद्र कुमार : प्रसिद्ध वास्तु एवं रत्न विशेषज्ञ ज्योतिषी (राया वाले)

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  • Jeevan Mantra

प्रस्तुति - रवींद्र कुमार 

प्रसिद्ध वास्तु एवं रत्न विशेषज्ञ ज्योतिषी (राया वाले)

आज‬ का पंचांग

तिथि..................नवमी शाम 03:17 तक तत्पश्चात दश्मी

 

वार.....................बुधवार

पक्ष.....................कृष्ण

   

नक्षत्र......................उत्तराफाल्गुनी दोपहर 12:33 तक तत्पश्चात हस्त

योग........................आयुष्मान् रात्रि 10:40 तक तत्पश्चात सौभाग्य

राहुकाल...................दोपहर 12:31 से  01:53 तक

 

मास......................मार्गशीर्ष 

ऋतु......................हेमंत 

अयन....................दक्षिणायन

 

कलि युगाब्द........5122

विक्रम संवत्........2077

शक संवत ..........1942

संवत्सर..............प्रमादी

 

सृष्टियाब्द.............15,55,21,17,29,49,122

कल्पाब्द..............1,17,29,49,122

सृष्टि संवत्............1,95,58,85

दिशाशूल..............उत्तर दिशा से

 

सूर्योदय...............6:55

सूर्यास्त...............5:14  (सूर्योदय और सूर्यास्त का समय विभिन्न स्थानों में भिन्न होता है)

व्रत/पर्व विवरण.....

 

9 दिसंबर 2020

आज का दिन हम सभी के लिये मंगलमय हो।

 

9 दिसम्बर/जन्म-दिवस

 

झण्डा गीत और श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’

 

भारत की स्वाधीनता के युद्ध में ‘झण्डा गीत’ का बड़ा महत्व है। यह वह गीत है, जिसे गाते हुए लाखों लोगों ने ब्रिटिश शासन की लाठी गोली खाई; पर तिरंगे झण्डे को नहीं झुकने दिया। आज भी यह गीत सुनने वालों को प्रेरणा देता है। इस गीत की रचना का बड़ा रोचक इतिहास है।

 

इसके लेखक श्री श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ का जन्म कानपुर (उ.प्र.) के पास नरवल गाँव में नौ दिसम्बर, 1893 को हुआ था। मिडिल पास करने के बाद उनके पिताजी ने उन्हें घरेलू कारोबार में लगाना चाहा; पर पार्षद जी की रुचि अध्ययन और अध्यापन में थी। अतः वे जिला परिषद के विद्यालय में अध्यापक हो गये। वहाँ उनसे यह शपथपत्र भरने को कहा गया कि वे दो साल तक यह नौकरी नहीं छोड़ेंगे। पार्षद जी ने इसे अपनी स्वाधीनता पर कुठाराघात समझा और नौकरी से त्यागपत्र दे दिया।

 

इसके बाद वे मासिक पत्र ‘सचिव’ का प्रकाशन करने लगे। इसके मुखपृष्ठ पर लिखा होता था -

 

रामराज्य की शक्ति शान्ति, सुखमय स्वतन्त्रता लाने को

लिया सचिव ने जन्म, देश की परतन्त्रता मिटाने को।।

 

पार्षद जी की रुचि कविता में भी थी। एक समारोह में पार्षद जी ने अध्यक्ष महावीर प्रसाद द्विवेदी के स्वागत में एक कविता पढ़ी। इससे गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ बहुत प्रभावित हुए। 1923 में फतेहपुर (उ.प्र.) में जिला कांग्रेस अधिवेशन में विद्यार्थी जी का बड़ा ओजस्वी भाषण हुआ। सरकार ने इस पर उन्हें जेल में ठूँस दिया। जेल से आने पर उनके स्वागत में पार्षद जी ने एक कविता पढ़ी। इस प्रकार दोनों की घनिष्ठता बढ़ती गयी।

 

उन दिनों कांग्रेस ने अपना झण्डा तो तय कर लिया था; पर उसके लिए कोई गीत नहीं था। विद्यार्थी जी पार्षद जी से आग्रह किया कि वे कोई झण्डा गीत लिख दें। पार्षद जी ने स्वीकृति दे दी; पर काफी समय तक लिख नहीं पाये। एक बार विद्यार्थी जी ने कहा कि लगता है तुम्हें बहुत घमंड हो गया है। चाहे जैसे हो, पर मुझे हर हाल में कल सुबह तक झण्डा गीत चाहिए। इस पर पार्षद जी ने रात में यह गीत लिखा।

 

विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा।

सदा शक्ति सरसाने वाला, वीरों को हर्षाने वाला

शान्ति सुधा बरसाने वाला, मातृभूमि का तन मन सारा।

झण्डा ऊँचा रहे हमारा।। 

 

इस गीत में विजयी विश्व पर कुछ लोगों को आपत्ति थी; पर पार्षद जी ने कहा कि इसका अर्थ विश्व को जीतना नहीं, अपितु विश्व में विजय प्राप्त करना है। धीरे-धीरे यह गीत लोकप्रिय होता गया। 1938 के हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में जब गांधी जी और नेहरु जैसे कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने इसे गाया, तो अपनी कलम को सार्थक होते देख पार्षद जी भाव विभोर हो उठे।

 

पर आजादी के बाद कांग्रेस का जो हाल हुआ, उससे पार्षद जी का मन खिन्न हो गया। एक बार उनसे एक मित्र ने पूछा कि आजकल क्या नया लिख रहे हो ? अपने मन की पीड़ा को दबा कर वे बोले - नया तो नहीं लिखा; पर पुराने झण्डा गीत में यह संशोधन कर दिया है।

 

इसकी शान भले ही जाए; पर कुर्सी न जाने पाये।।

 

आगे चलकर उन्होंने ग्राम नरवल में गणेश सेवा आश्रम खोला। वहाँ प्रतिदिन वे पैदल जाते थे। एक बार उनके पाँव में काँच चुभ गया। पैसे के अभाव में इलाज ठीक से नहीं हो पाया और गैंगरीन हो जाने से 10 अगस्त, 1977 को उनका देहान्त हो गया।

 

 

 

9 दिसम्बर/जन्म-दिवस

 

अप्रतिम रचानाकार लक्ष्मीकान्त महापात्र

 

महाकवि लक्ष्मीकान्त महापात्र बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे कवि होने के साथ ही स्वतन्त्रता सेनानी भी थे। उन्होंने ओड़िया साहित्य को नया आयाम प्रदान किया तथा हजारों लोगों को स्वतन्त्रता संग्राम से जोड़ा। इनका साहित्य हर आयु एवं वर्ग के लोगों के मन को झकझोर देता था। इसीलिए राज्य की जनता ने उन्हें ‘कान्तकवि’ की उपाधि देकर सम्मानित किया। 

 

एक अपै्रल, 1936 को भाषाई आधार पर उड़ीसा पहला राज्य बना। इसके निर्माण में भी इनकी लेखनी का महत्वपूर्ण योगदान रहा। इनका जन्म 9 दिसम्बर, 1888 को कटक के धुआँपत्रिया में हुआ था। श्री महापात्र की कविता, कहानियाँ तथा अन्य रचनाएँ ओड़िया साहित्य का अभिन्न अंग हैं। इनके एक गीत ‘बन्दे उत्कल जननी’ को उड़ीसा के राज्यगान का स्थान दिया गया है। यह गीत अत्यन्त हृदयस्पर्शी है। 

 

श्री महापात्र ने ओड़िया भाषा के साहित्य को तब सँभाला एवं सँवारा, जब उसका अस्तित्व खतरे में था। ऐसे समय में उन्होंने अपनी तेजस्वी और प्रखर लेखनी से ओड़िया भाषा एवं संस्कृति पर हो रहे आक्रमण के विरुद्ध जनता में चेतना जगायी और इस संघर्ष में सफलता प्राप्त की।

 

श्री महापात्र ने न केवल ओजपूर्ण कविताओं की रचना की, अपितु अनेक प्रकार के हास्य व्यंग्य, कहानियाँ, नाटक एवं उपन्यास भी लिखे। इतना ही नहीं, तो वे एक अच्छे गायक एवं अभिनेता भी थे। अपने गीतों को गाकर तथा अपने नाटकों में अभिनय कर उन्होंने जनता को जाग्रत किया। खराब स्वास्थ्य के बाद भी वे इस काम में सदा सबसे आगे रहते थे। उनके लेख जहाँ राष्ट्रवाद की भावना जगाते हैं, वहाँ एक वृद्ध चूड़ी वाले के जीवन पर लिखी कहानी ‘बुढा शंखारी’ उसके जीवन के हर पहलू का सजीव वित्रण कर पाठक को रोने पर मजबूर कर देती है। 

 

श्री महापात्र मूलतः ओड़िया भाषा के साहित्यकार थे; पर उन्होंने अंग्रेजी भाषा में भी अपनी लेखनी चलाई। उन्होंने उस समय ख्याति प्राप्त ऑब्जर्वर तथा करेण्ट अफेयर्स नामक पत्रिकाओं में लेख लिखे। उनकी एक रचना ‘म्यूजिक ऑफ विसिल’ से एक फ्रैंच महिला इतनी प्रभावित हुई कि उसने इसका अपनी भाषा में अनुवाद किया, जिससे उसके देश के लोग इसे पढ़ सकें।

 

श्री महापात्र के पिता श्री भागवत प्रसाद एक राजनेता थे, जबकि उनकी माता श्रीमती राधामणि देवी वेद और उपनिषदों की अच्छी जानकार थीं। उनके दोनों भाई सीताकान्त व कमलाकान्त तथा बहिन कोकिला देवी भी स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय थे। इस कारण स्वाभाविक रूप से घर-परिवार में धर्म, देश, समाज, गुलामी और राजनीति की चर्चा प्रायः होती थी। अतः राजनीति एवं समाज सेवा के संस्कार लक्ष्मीकान्त पर बालपन से ही पड़े। आगे चलकर वे चार बार उड़ीसा-बिहार विधानसभा के सदस्य बने तथा दो बार उन्होंने सदन के उपाध्यक्ष का पद भी सँभाला। 

 

श्री लक्ष्मीकान्त महापात्र ने दहेज के अभाव में कई कन्याओं के जीवन बिगड़ते हुए देखे। इससे उन्हें बहुत पीड़ा हुई और उन्होंने दहेज प्रथा के उन्मूलन के अथक प्रयास किये। उनकी साहित्य एवं समाज के प्रति सेवाओं को देखकर उत्कलमणि गोपबन्धु दास एवं उत्कल गौरव मधुसूदन दास ने भी उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। 24 फरवरी, 1953 को उनके निधन से न केवल ओड़िया, अपितु सम्पूर्ण भारतीय साहित्य की अपूरणीय क्षति हुई।

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