आज‬ का पंचांग_प्रस्तुति - रवींद्र कुमार, प्रसिद्ध वास्तु एवं रत्न विशेषज्ञ ज्योतिषी (राया वाले)

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आज‬ का पंचांग

तिथि..................त्रयोदशी शाम 05:18 तक तत्पश्चात चतुर्दशी

 

वार....................गुरुवार

 

पक्ष....................शुक्ल

 

नक्षत्र...................पुष्य दोपहर 01:17 तक तत्पश्चात अश्लेशा

 

योग......................शोभन 26 फरवरी रात्रि 01:08 तक तत्पश्चात अतिगण्ड

 

राहुकाल................दोपहर 02:19 से 03:47 तक

 

मास......................बसंत

 

ऋतु......................शिशर 

 

कलि युगाब्द............5122

 

विक्रम संवत्............2077

 

शक संवत ..............1942

 

संवत्सर..................प्रमादी

 

सृष्टियाब्द..........15,55,21,17,29,49,122

 

कल्पाब्द........1,17,29,49,122

 

सृष्टि संवत्............1,95,58,85

 

दिशाशूल..............दक्षिण दिशा से

 

सूर्योदय...............6:42

 

सूर्यास्त...............6:09 (सूर्योदय और और सूर्यास्त का  समय अलग अलग स्थानों में अलग होता है)

 

व्रत/पर्व विवरण.....गुरुपुष्पामृत योग (सूर्योदय से दोपहर 1:17 तक)

 

25 फरवरी 2021

 

आज का दिन हम सभी के लिये मंगलमय हो।

 

25 फरवरी/इतिहास-स्मृति

 

पालखेड़ का ऐतिहासिक संग्राम

 

द्वितीय विश्व युद्ध के प्रसिद्ध सेनानायक फील्ड मार्शल मांटगुमरी ने युद्धशास्त्र पर आधारित अपनी पुस्तक ‘ए कन्साइस हिस्ट्री ऑफ़ वारफेयर’ में  विश्व के सात प्रमुख युद्धों की चर्चा की है। इसमें एक युद्ध पालखेड़ (कर्नाटक) का है, जिसमें 27 वर्षीय बाजीराव पेशवा (प्रथम) ने संख्या व शक्ति में अपने से दुगनी से भी अधिक निजाम हैदराबाद की सेना को हराया था।

 

बाजीराव (प्रथम) शिवाजी के पौत्र छत्रपति शाहूजी के प्रधानमंत्री (पेशवा) थे। उनके पिता श्री बालाजी विश्वनाथ भी पेशवा ही थे। उनकी असामयिक मृत्यु के बाद मात्र 20 वर्ष की अवस्था में ही बाजीराव को पेशवा बना दिया गया। 

 

बाजीराव का देहांत भी केवल 40 वर्ष की अल्पायु में ही हो गया; पर पेशवा बनने के बाद उन्होंने जितने भी युद्ध लड़े, किसी में भी उन्हें असफलता नहीं मिली। इस कारण हिन्दू सेना व जनता के मनोबल में अतीव वृद्धि हुई। 

 

औरंगाबाद के पश्चिम तथा वैजापुर के पूर्व में स्थित पालखेड़ गांव में 25 फरवरी, 1728 को यह युद्ध हुआ था। पालखेड़ चारों ओर से छोटी-बड़ी पहाड़ियों से घिरा है। निजाम के पास विशाल तोपखाना था; पर बाजीराव के पास एक ही दिन में 75 कि.मी. तक चलकर धावा बोलने वाली घुड़सवारों की विश्वस्त टोली थी। 

 

जिस प्रकार शिकारी चतुराई से शिकार को चारों ओर से घेरकर अपने कब्जे में लेता है, उसी प्रकार बाजीराव ने निजाम की सैन्य शक्ति तथा पालखेड़ की भौगोलिक स्थिति का गहन अध्ययन किया। जब उसे निजाम की सेना के प्रस्थान का समाचार मिला, तो वह बेटावद में था। उसने कासारबारी की पहाड़ियों से होकर औरंगाबाद जाने का नाटक किया। इससे निजाम की सेना भ्रम में पड़ गयी; पर अचानक बाजीराव ने रास्ता बदलकर दक्षिण का मार्ग लिया और पालखेड़ की पहाड़ियों में डेरा डाल दिया। 

 

इसके बाद उसने पहले से रणनीति बनाकर धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा की और निजाम की सेना को इस मैदान में आने को मजबूर कर दिया। निजाम के पास तोपों को विशाल बेड़ा था; पर यह घाटी संकरी होने के कारण वे तोपें यहां आ ही नहीं सकीं। परिणाम यह हुआ कि जितनी सेना घाटी में आ गयी, बाजीराव ने उसे चारों ओर से घेरकर उसकी रसद पानी बंद कर दी। सैनिक ही नहीं, तो उनके घोड़े भी भोजन और पानी के अभाव में मरने लगे।

 

यह हालत देखकर निजाम को दांतों तले पसीना आ गया और उसे घुटनों के बल झुककर संधि करनी पड़ी। छह मार्च, 1728 को हुई यह संधि ‘शेवगांव की संधि’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस संधि से पूर्व बाजीराव ने जमानत के तौर पर निजाम के दो प्रमुख कर्मचारियों को अपने पास बंदी रखा। 

 

संधि के अनुसार अक्कलकोट, खेड, तलेगांव, बारामती, इंदापुर, नारायणगढ़ तथा पूना आदि जो स्थान किसी समय मराठा साम्राज्य में थे, वे सब फिर से मराठों के अधिकार में आ गये। इसी प्रकार दक्खिन के सरदेशमुखी की सनद व स्वराज्य की सनद भी निजाम ने इस संधि के अनुसार मराठों को सौंप दी।

 

परन्तु दुर्भाग्यवश छत्रपति शाहू जी कमजोर दिल के प्रशासक थे। वे बाजीराव जैसे अजेय सेनापति के होते हुए भी मुसलमानों से मिलकर ही चलना चाहते थे। उन्होंने बाजीराव को संदेश भेजा कि निजाम को समूल नष्ट न किया जाए और उसका अत्यधिक अपमान भी न करें।

 

इसका परिणाम यह हुआ कि 1818 में पेशवाई तो समाप्त हो गयी; पर अंग्रेजों की सहायता से निजाम फिर शक्तिशाली हो गया और देश की स्वाधीनता के बाद गृहमंत्री सरदार पटेल के साहसी कदम से 1948 में ही उसका पराभव हुआ।

 

25 फरवरी/पुण्य-तिथि                                 

 

काले कपड़ों वाले जनरल केदारनाथ सहगल

 

भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास में लाला केदारनाथ सहगल काले कपड़ों वाले जनरल के नाम से जाने जाते थे। 1896 में इनका जन्म लाहौर के एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। माता-पिता ने इन्हें एक अच्छे और महँगे विद्यालय में यह सोचकर भर्ती कराया कि इससे इनका भविष्य उज्जवल बनेगा; पर वहाँ के प्रधानाचार्य स्वयं क्रान्तिकारी थे, अतः इनके मन में बचपन से ही देशसेवा की भावना घर कर गयी। 

 

उस समय पंजाब में सरदार अजीत सिंह तथा सूफी अम्बाप्रसाद ‘भारतमाता संस्था’ के माध्यम से गाँव-गाँव घूमकर अंग्रेजों को भूमिकर न देने का अभियान चला रहे थे। 1907 में 11 वर्ष की अवस्था में ही केदारनाथ जी भी उसमें शामिल हो गये। 1911 में सशस्त्र कानून के अन्तर्गत इन्हें पहली बार गिरफ्तार किया गया। जेल जाने से इनकी इनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गयी; पर इन्होंने कुछ चिन्ता नहीं की।

 

1914 में इन्हें लाहौर में हुए एक काण्ड में अपराधी ठहराकर फिर गिरफ्तार किया गया। तीन साल तक चले मुकदमे के बाद इन्हें साढ़े चार साल की सजा देकर मुल्तान जेल भेज दिया गया। वहाँ से आते ही ये गांधी जी द्वारा चलाये गये असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े। 

 

उस समय ये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की लाहौर कमेटी के महामन्त्री थे। 1920 में इन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक भारत स्वतन्त्र नहीं होगा, तब तक वे काले कपड़े ही पहनेंगे। तब से ही लोग इन्हें ‘काले कपड़ों वाला जनरल’ कहने लगे।

 

1921 में जब साइमन कमीशन भारत आया, तो उसके विरोध में पंजाब में भारी आन्दोलन हुआ। लाहौर में हुए विरोध कार्यक्रम में इन्होंने अपने साथियों सहित साइमन को काले झण्डे दिखाये। पुलिस ने भारी लाठीचार्ज किया, जिसमें लाला लाजपतराय बहुत घायल हुए। वह चोट उनके लिए घातक सिद्ध हुई और वे चल बसे। आगे चलकर भगतसिंह और उनके साथियों ने इसका बदला सांडर्स को मौत की नींद सुलाकर लिया।

 

सांडर्स काण्ड में केदारनाथ जी को भी तीन साल की सजा हुई। इसके अतिरिक्त मेरठ षड्यन्त्र काण्ड में भी इन्हें पाँच साल सीखचों के पीछे रहना पड़ा। प्रयाग उच्च न्यायालय में अपील के बाद 1933 में ये रिहा हुए। 

 

अपनी आवाज सामान्य जनता तक पहुँचाने के लिए इन्होंने ‘खबरदार’ तथा ‘उर्दू अखबार’ नामक दो समाचार पत्र प्रारम्भ किये। लाला लाजपतराय के अखबार ‘वन्देमातरम्’ के प्रकाशक भी यही थे। इन पत्रों में शासन की खूब खिंचाई की जाती थी। आन्दोलन के समाचारों के लिए लोग इनकी प्रतीक्षा करते थे। 

 

शासन को ये अखबार फूटी आँखों नहीं सुहाते थे। अतः उसने इन्हें बन्द करा दिया। केदारनाथ जी ने अपने पूर्वजों की सारी सम्पत्ति बेचकर स्वतन्त्रता आन्दोलन में लगा दी। उन्होंने अपने जीवन के कुल 26 साल अंग्रेजों की जेलों में बिताये। वहाँ इन्हें अनेक प्रकार की शारीरिक और मानसिक प्रतारणाएँ झेलनी पड़ीं; पर इन्होंने झुकना या पीछे हटना स्वीकार नहीं किया।

 

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी केदारनाथ जी ने इस देशसेवा के बदले में कुछ नहीं चाहा। 25 फरवरी, 1968 को हृदयगति रुक जाने से इनका देहान्त हो गया। काले कपड़ों वाले जनरल के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए इनके साथियों ने इनके कफन में भी काले कपड़ों का ही प्रयोग किया।

 

25 फरवरी बलिदान-दिवस                                   

 

गोभक्त अरुण माहौर  

 

भारत में सदा से ही गाय को पूज्य माना जाता है। अनेक लोग गोरक्षा के लिए हर संकट उठाने का तैयार रहते हैं। ऐसे ही एक गोभक्त थे श्री अरुण माहौर, जिन्हें हत्यारों ने गोली मारकर सदा की नींद सुला दिया।

 

उत्तर प्रदेश में आगरा एक प्रसिद्ध नगर है। ताजमहल को देखने दुनिया भर के लोग वहां आते हैं। वहां पर ही श्री रमेश चंद्र जी के घर में गोभक्त अरुण माहौर का जन्म हुआ था। उनका घर आगरा के मुस्लिम बहुत मोहल्ले मंटोला में था। कई हिन्दू परिवारों ने दूसरी जगह घर बना लिये थे; पर रमेश जी की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। सबके सुख-दुख में सहभागी होने के कारण मोहल्ले में सबसे उनके अच्छे सम्बन्ध थे। अतः वे यहीं रह रहे थे। 

 

मुस्लिम बहुल मोहल्लों में प्रायः हिन्दू परिवार रहना पसंद नहीं करते। अधिक जनसंख्या तथा भीड़भाड़ के कारण वहां गंदगी, गरीबी, अशिक्षा, शोर और लड़ाई-झगड़े का माहौल रहता है। खुलेआम पशुहत्या के कारण बीमारियां भी जल्दी फैलती हैं। अरुण जी इसी माहौल में बड़े हुए थे। बचपन से ही वे साहसी स्वभाव के थे। अतः कोई गलत काम होते देख वे चुप नहीं रह पाते थे। लड़कियों के अपहरण या हिन्दू उत्पीड़न की कोई घटना होते ही वे पीड़ित परिवार की सहायता तथा पुलिस के माध्यम से अपराधियों को दंडित कराने का प्रयास करते थे। वे अपने मोहल्ले के हिन्दुओं को यहीं डटे रहने के लिए भी प्रेरित करते थे। तीन साल पूर्व उनकी फर्नीचर की दुकान को गुंडों ने जला दिया, जिससे डर कर वे भाग जाएं; पर अरुण जी ने मोहल्ला नहीं छोड़ा।

 

गोरक्षा में तो अरुण माहौर के प्राण ही बसते थे। सड़क पर यदि कोई घायल गाय मिलती, तो वे उसके इलाज का प्रबन्ध करते थे। उनके पिताजी नगर कांग्रेस कमेटी में पदाधिकारी थे। उनके दादा श्री गणेशीलाल जी भी कांग्रेस में सक्रिय रहे; पर अरुण जी पिछले 15 साल से ‘विश्व हिन्दू परिषद’ से जुड़े थे। इन दिनों वे परिषद में आगरा महानगर के उपाध्यक्ष थे। उन्हें गायों की तस्करी या गोहत्या की सूचना यदि रात में भी मिलती, तो वे उसे रोकने चल देते थे। उनके तथा ‘बजरंग दल’ के युवकों के कारण हजारों गायों की रक्षा हुई तथा आगरा के विभिन्न थानों में लगभग 250 मामले दर्ज हुए। 

 

आगरा में मुख्यतः ‘नाई की मंडी’ में गोमांस का अवैध कारोबार होता है। अरुण जी के कारण गोतस्करों को बहुत हानि हो रही थी। अतः वे उनकी आंखों में कांटे की तरह खटकने लगे। उन्होंने कई बार उन्हें जान से मारने की धमकी दी गयी; पर वे डरे नहीं। 23 फरवरी को आवारागर्दी करते हुए एक गुंडे शाहरुख से उनकी झड़प हुई थी। वह प्रायः पिस्तौल दिखाकर लड़कियों को छेड़ता था। अगले दिन उसने लोगों को धमकाया कि कल इस बस्ती से एक आदमी कम हो जाएगा। माहौल बिगड़ता देख लोगों ने थाने में कहा। समाजवादी शासन में पुलिस हिन्दू हितैषियों के प्रति प्रायः उदासीन ही रहती है। अतः उन्होंने लिखित शिकायत करने को कहा; पर अगले ही दिन 25 फरवरी, 2016 को दिनदहाड़े गुंडों ने अरुण जी की हत्या कर दी।

 

अरुण जी की आयु केवल 45 वर्ष थी। परिवार में अकेले वे ही कमाने वाले थे। छह महीने पूर्व इसी राज्य के दादरी में गोमांस की अफवाह के कारण मारे गये अखलाक के परिवार को प्रदेश शासन ने 45 लाख रु. नगद, चार मकानों के लिए 36 लाख रु. तथा उसके दो आश्रितों को सरकारी नौकरी देने की घोषणा की थी। जबकि अखलाक का एक बेटा वायुसेना में कार्यरत है; लेकिन जनता के बहुत शोर मचाने पर भी उ.प्र. सरकार ने स्वर्गीय अरुण माहौर के परिवार को केवल 15 लाख रु. की सहायता दी। इतना ही नहीं, तो उनकी श्रद्धांजलि सभा में अनेक रोड़े अटकाये। फिर भी हजारों लोगों ने वहां आकर गोरक्षा का संकल्प लिया।

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