तृतीय गृह एकादश गृहाधीश श्रीबालकृष्णलालजी महाराज - 10

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  • Jeevan Mantra

प्रस्तुति : श्रीधर चतुर्वेदी।

।।श्रीद्वारकेशो जयति।।

तृतीय गृह गौरवगान

प्रसंग:- 220

 

*तृतीय गृह एकादश गृहाधीश श्रीबालकृष्णलालजी महाराज - 10*

 

श्रीबालकृष्णलालजी की साहित्य में गहन अभिरुचि एवं कला के विविध क्षेत्रों में पारंगतता का अल्प परिचय हमने कल के प्रसंग में प्राप्त किया। उनके विविधरंगी चरित्र का संपूर्ण चित्रण इस छोटीसी लेखश्रेणी में कर पाना तो असंभव सा है। तथापि, उनके व्यक्तित्व के कुछ अन्य पहलूओं का यहाँ उल्लेख मात्र करके उनकी विराट प्रतिभा के यत्किंचित् दर्शन करने का प्रयास करते हैं।

 

"इन सब गुणों के साथ महाराजश्री में उत्कृष्ट वक्तृत्व कला भी विद्यमान थी। बड़ी-बड़ी धार्मिक सभाओं में निःशंक होकर बोलना उनका सहज गुण था। महाराजश्री के उत्साह और पूर्ण साहाय्य से ही 'भारत धर्म -महामंडल' की स्थापना हुई थी। इन दिनों आर्यसमाज का विशेष ज़ोर था और चारों ओर उसके साथ शास्त्रार्थ की गूँज उठा करती थी। फलतः महाराजश्री का आश्रय पाकर कई उपदेशकों ने घूम-घूम कर सनातनधर्म सभाएँ स्थापित कीं और धर्म का प्रचार किया।"

 

"महाराजश्री ने जहाँ संस्कृत के विद्वानों को अपना आश्रय दिया, वहाँ हिन्दी के कवियों को भी उन्होंने विस्मृत नहीं कर दिया। ध्यान रखने की बात है कि- हिन्दी साहित्य के लिए यह वह समय था, जब संस्कृत के विद्वान् इसे 'भाखा' कहकर पुकारा और हेय दृष्टि से देखा करते थे। इधर उर्दू-फ़ारसी युक्तप्रान्त (आज के उत्तरप्रदेश) की राज्यभाषा और लोकभाषा बनती चली जा रही थी। ऐसे समय महाराजश्री ने जहाँ संस्कृतज्ञ समाज का आदर किया, वहाँ हिन्दी काव्यकला को भी जीवन प्रदान किया। इसी समय से भारत में साहित्य-गोष्ठियों का जन्म होने लगा और वे संगठित होकर कार्य करने लगीं, जिससे अनेक साहित्यिक व्यक्ति महाराजश्री के परिचय में आये।"

 

"महाराजश्री ने सनातनधर्म, हिन्दी साहित्य और गायन विद्या को प्रश्रय देने के साथ ही अपने साम्प्रदायिक वैष्णवधर्म का भी ख़ूब प्रचार किया था। श्रीमग्नलालजी शास्त्री, भारत-मार्तण्ड श्रीगट्टूलालाजी, शीघ्रकवि भट्ट श्रीनन्दकिशोरजी शास्त्री, साम्प्रदायिक ग्रन्थों के सर्वप्रथम प्रकाशक और संशोधक पं.रत्नगोपालजी शास्त्री आदि को महाराजश्री ने एतद्विषयक सहयोग देकर भी वैष्णवधर्म के उपदेशों का जाल सा फैला दिया था।"

 

"इन सब गुणों के साथ महाराजश्री में मुक्त-हस्त होकर दान देने का भी एक गुण था। इसका परिणाम यहाँ तक पहुँचता था कि- कई बार उन्हें अर्थसंकोच भी उठाना पड़ा।"

 

ऐसे विराट व्यक्तित्व के स्वामी के 'इतिहास' में निरूपित विस्तृत चरित्रचित्रण के कुछ अंशों को यहाँ उद्धृत कर उनका चरित्रावलोकन करने का यह प्रयास भी वैसे तो अपूर्ण ही है। तथापि, जितना भी अवगाहन हम कर पाये हैं उसे हमारे सुज्ञ पाठक 'गागर में सागर' के समान चेष्टा समझने की उदारता मान लें।

 

कल आपश्री के चरित्रावलोकन का उपसंहार करके आपश्री के भूतलत्याग की घटना के विवरण के साथ आपश्री के चरित्रावलोकन का समापन करेंगें।

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