तृतीय गृह एकादश गृहाधीश श्रीबालकृष्णलालजी महाराज - 8

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।।श्रीद्वारकेशो जयति।।

तृतीय गृह गौरवगान

प्रसंग:- 218

 

तृतीय गृह एकादश गृहाधीश श्रीबालकृष्णलालजी महाराज - 8

 

कल के प्रसंग में श्रीमथुरेशजी के नाथद्वारा से कांकरोली पधारने का वृत्तांत जो विस्तारभय के कारण अपूर्ण छोड़ा गया था उसकी आज पूर्णता करते हैं।

 

"महाराजश्री ने बड़े उत्साह और हर्ष के साथ सोने-चाँदी के फूल बरसाकर प्रभु को मन्दिर में विराजमान किया। इस समय दर्शन करने के लिए उदयपुर से महाराणा फ़तहसिंहजी भी कांकरोली आये। उन्होंने कांकरोली में संपन्न हुए मनोरथों के दर्शन किये और सेवार्थ द्रव्य भेंट किया। कांकरोली और कोटा के दोनों तिलकायितों ने बड़े हर्ष के साथ दोनों स्वरूपों की सेवा कर विविध मनोरथ किये। मार्गशीर्ष शु.12 के दिन मंदिर में गोवर्द्धन-पूजा के चौक में मंडप में दोनों स्वरूप विराजे और दीपावली का मनोरथ हुआ। इस प्रकार कांकरोली में द्वारकाधीश के साथ मथुरेशजी ग्यारह दिन तक एक ही सिंहासन पर विराजे और दोनों स्वरूपों की साथ ही सेवा हुई। यहाँ से मथुरेशजी पुनः नाथद्वारा पधारे। मार्गशीर्ष शु.14 के दिन द्वारकाधीश भी नाथद्वारा पधारे और वहाँ छप्पनभोग का मनोरथ लालबाग में बड़े समारोह के साथ संपन्न हुआ। पौष कृ.7 के दिन मथुरेशजी से बिदा होकर द्वारकाधीश प्रभु कांकरोली पधारे।"

 

"सं.1966 वैशाख कृ.7 के दिन महाराजश्री ने विट्ठलविलास बाग़ में बड़ी सजावट के साथ द्वारकाधीश तथा मथुरेशजी का खसखाना का मनोरथ किया, जिसमें रायसागर से नहर लाकर ख़ूब जल भरवाया गया था। इस समय मथुरेशजी पुनः कांकरोली पधारे और यहाँ से वे कोटा पधार गये।"

 

【आज के प्रसंग के साथ दिया जा रहा चित्र उपर्युक्त उसी मनोरथ के तादृश दर्शन करा रहा है, जिसमें श्रीमथुरेशजी और श्रीद्वारकाधीशजी मंडप में विराजे हुए दीपावली का मनोरथ अंगीकार कर रहे हैं। सेवा में उपस्थित कोटा और कांकरोली के तिलकायित भी सपरिवार दृश्यमान हो रहे हैं, और ठेठ बायीं ओर महाराणा फ़तहसिंहजी भी प्रणाम की मुद्रा में दिखाई दे रहे हैं।】

 

अब हम उन कुछ घटनाओं का संक्षिप्त विवरण देखने जा रहे हैं, जिससे महाराजश्री की उच्च स्तरीय साहित्यिक प्रकृति और सर्जनात्मकता का परिचय प्राप्त होता है।

 

"महाराजश्री ने सं.1950 चैत्र कृ.3 के दिन काशी के गोपाल-मंदिर में समस्त विद्वानों की एक महती सभा की, और सभी विषय के पंडितों से विविध विषयों पर शास्त्रचर्चा सुनी थी। उन्होंने तथा उनके भाई जीवनलालजी महाराज ने सभा में अपनी विबुध- प्रश्रय वृत्ति का अच्छा परिचय दिया, तथाच उपस्थित विद्वानों का समुचित पूजन-सत्कार किया।  उस समय की लिखी गई एक नामावली से विदित होता है कि इस सभा में 116 पंडितों ने भाग लिया था, जिसमें 928 रुपया की नक़द दक्षिणा, 348 रुपया की पुस्तकें और 580 रुपया के वस्त्र आदि सब मिलाकर 2000 रुपया व्यय हुआ था।"

 

आज का प्रसंग यहाँ समाप्त करते हुए, कल ऐसी ही कुछ घटनाओं पर दृष्टिपात करेंगें, जिनमें महाराजश्री के बहुमुखी व्यक्तित्व का साहित्यिक पहलू और उजागर होता है।

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