आज‬ का पंचांग

Subscribe






Share




  • Jeevan Mantra

रवींद्र कुमार

।ॐ।|

आज‬ का पंचांग

 

तिथि.........द्वादशी

वार...........रविवार

पक्ष... .......कृष्ण

         

नक्षत्र.........आर्द्र

योग...........वज्र

राहु काल.....१७:२१--१८:५९

 

मास............भाद्रपद

ऋतु.............वर्षा

 

कलि युगाब्द....५१२२

विक्रम संवत्....२०७७

 

16   अगस्त   सं  2020

आज का दिन सभी के लिए मंगलमय हो

????????????????????????????????

 

#हरदिनपावन

"16 अगस्त/जन्म-दिवस"

वीरता एवं शौर्य की गायिका  : सुभद्रा कुमारी चौहान

 

‘खूब लड़ी मरदानी वह तो झांसी वाली रानी थी’ कविता की लेखक सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म 16 अगस्त, 1904 (नागपंचमी) को प्रयाग (उ.प्र.) के पास ग्राम निहालपुर में ठाकुर रामनाथ सिंह के घर में हुआ था। उन्हें बचपन से ही कविता लिखने का शौक था। प्रसिद्ध लेखिका महादेवी वर्मा प्रयाग में उनकी सहपाठी थीं। दोनों ने ही आगे चलकर खूब प्रसिद्धि प्राप्त की।

 

15 वर्ष की अवस्था मेें ठाकुर लक्ष्मण सिंह से विवाह के बाद वे जबलपुर आ गयीं। प्रयाग सदा से ही हिन्दी साहित्य का गढ़ तथा कई प्रसिद्ध साहित्यकारों की कर्मभूमि रहा है। जबलपुर भी मध्य भारत की संस्कारधानी कहा जाता है। सुभद्रा जी के व्यक्तित्व में इन दोनों स्थानों की सुगंध दिखाई देती है। 

 

ठाकुर लक्ष्मण सिंह स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय थे। वे कविता भी लिखते थे; पर सुभद्रा जी का काव्य कौशल देखकर उन्होंने कविता लिखना बंद कर दिया। इतना ही नहीं, तो उन्होंने सुभद्रा जी को उच्च शिक्षा प्राप्त करने और सार्वजनिक जीवन में आने को प्रेरित किया। उन दिनों महिलाएं प्रायः पर्दा करती थीं; पर पति से प्रोत्साहन पाकर सुभद्रा जी ने इसे छोड़ दिया।

 

1921 के असहयोग आंदोलन के समय लक्ष्मण सिंह जी जबलपुर में अग्रिम पंक्ति में रहकर कार्य कर रहे थे। सुभद्रा जी भी पति के साथ आंदोलन में कूद गयीं और कारावास का वरण किया। मध्य भारत में जेल जाने वाली वे पहली महिला थीं। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी वे सहर्ष जेल गयीं। घर में छोटे बच्चों को छोड़कर जेल जाना आसान नहीं था; पर वे कहती थीं कि मैं क्षत्राणी हूं, अतः ब्रिटिश सरकार से टक्कर लेना मेरा धर्म है।

 

सुभद्रा जी के मन में झांसी की रानी के प्रति बहुत श्रद्धा थी। वे उन्हें अपना आदर्श मानती थीं। रानी लक्ष्मीबाई पर लिखी हुई उनकी कविता ने हजारों युवकों को राष्ट्रीय आंदोलन में कूदने को प्रेरित किया। पति-पत्नी दोनों जाति, प्रांत और ऊंच-नीच के भेदभाव से मुक्त थे। उनका घर सबके लिए खुला था। उनके सभी परिचित रसोई में एक साथ बैठकर खाना खाते थे।

 

स्वाधीनता प्राप्ति के बाद वे मध्य प्रदेश विधानसभा तथा राज्य शिक्षा समिति की सदस्य बनीं। 15 फरवरी, 1948 को वसंत पंचमी थी। वे कार द्वारा नागपुर से वापस आ रही थीं। नागपुर-जबलपुर राजमार्ग पर ग्राम कलबोड़ी के पास अचानक कुछ मुर्गी के बच्चे कार के सामने आ गये। यह देखकर सुभद्रा जी का मातृहृदय विचलित हो उठा। वे जोर से बोलीं - भैया इन्हें बचाना।

 

इस आवाज से चालक चौंक गया और कार एक बड़े पेड़ से टकरा गयी। यह दुर्घटना इतनी भीषण थी कि सुभद्रा जी का वहीं प्राणांत हो गया। सुभद्रा जी का एक प्रसिद्ध गीत है, ‘वीरों का कैसा हो वसंत ?’ इसके भाव के अनुरूप उन्होंने वसंत पंचमी के पवित्र दिन कर्मक्षेत्र में ही प्राण त्याग दिये।

 

सुभद्रा जी के दो कविता संग्रह (मुकुल और त्रिधारा) तथा तीन कहानी संग्रह (बिखरे मोती, उन्मादिनी तथा सीधे सादे चित्र) छपे हैं। उनकी पुत्री सुधा चौहान ने उनकी जीवनी ‘मिला तेज से तेज’ प्रकाशित की है। भारतीय तटरक्षक सेना ने 28 अपै्रल, 2006 को एक जहाज को उनका नाम दिया। 16 अगस्त, 1976 को उन पर 25 पैसे का डाक टिकट भी जारी किया गया है।

 

#हरदिनपावन

"16 अगस्त/बलिदान-दिवस"

स्वतन्त्रता प्रेमी वीर बालक : उदयचन्द

 

15 अगस्त, 1947 भारत के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है, चूँकि इसी दिन देश अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ था; पर इसके लिए न जाने कितने बलिदानियों ने अपने जीवन को होम कर डाला। ऐसा ही एक वीर बालक था उदयचन्द, जिसने 16 अगस्त, 1942 को आत्माहुति देकर स्वतन्त्रता की यज्ञ ज्वाल को धधका दिया।

 

1942 में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन जोरों पर था। हजारों लोगों ने सत्याग्रह कर जेल स्वीकार की। कुछ लोगों को अंग्रेजों की पुलिस घर से ही उठाकर ले गयी। मध्य प्रदेश के मण्डला जिला कांग्रेस के तत्कालीन जिलाध्यक्ष पण्डित गिरजाशंकर अग्निहोत्री को भी पुलिस ने 9 अगस्त, 1942 को रक्षा अधिनियम के अन्तर्गत बन्द कर दिया।

 

यह समाचार सुनते ही बाजार स्वयंस्फूर्त ढंग से बन्द हो गये। अगले दिन से सभी विद्यालयों में भी हड़ताल हो गयी। मण्डला के आसपास के क्षेत्र में लोगों ने टेलीफोन की तारें काट दीं, रेल की पटरियाँ उखाड़ दीं, कई पुलों को ध्वस्त कर दिया। इससे बाहर की पुलिस मण्डला शहर में नहीं आ सकी।

 

उन दिनों रेडियो पूरी तरह सरकारी कब्जे में था, वहाँ से निष्पक्ष समाचार प्राप्त करना असम्भव था। अतः लोग बर्लिन रेडियो सुनते थे। यद्यपि उसे सुनने पर भी प्रतिबन्ध था; पर लोग चोरी छिपे उसे सुनकर समाचारों को कानाफूसी द्वारा सब ओर फैला देते थे। दो चार दिन की शान्ति के बाद 15 अगस्त, 1942 को पूरे मण्डला शहर में पुलिस की गाड़ियाँ घूमने लगीं। पुलिसकर्मी घरों व बाजार से लोगों को सन्देह के आधार पर ही पकड़ने लगे।

 

इससे जनता में आक्रोश फैल गया। लोग डरने की बजाय सड़कों पर निकल आये और शासन के विरुद्ध नारे लगाने लगे।  ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ ‘वन्दे मातरम्’ और ‘भारत माता की जय’ के नारों से आकाश गूँजने लगा। लोग शहर के एक प्रमुख चौराहे पर आ गये। इनमें युवकों की संख्या बहुत अधिक थी। पुलिस अधिकारी ने संख्या बढ़ती देख और पुलिस बुला ली।

 

धीरे-धीरे दोनों ओर से तनाव बढ़ने लगा। कमानियाँ गेट और फतह दरवाजा स्कूल के पास पुलिस ने मोर्चा लगा लिया। 17 वर्षीय मन्नूमल मोदी हाथ में तिरंगा लेकर एकत्रित लोगों को सम्बोधित करने लगे। इस पर पुलिस अधिकारियों ने आगे बढ़कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। लोग डरने की बजाय और जोर से नारे लगाने लगे। इस पर पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया।

 

इस लाठीचार्ज में कई लोग घायल हुए। कुछ युवकों ने पुलिस पर पथराव कर दिया। इसी बीच कक्षा 11 के छात्र उदयचन्द ने तिरंगा सँभाल लिया। उसने सबसे पथराव न करने और शान्तिपूर्वक नारे लगाने को कहा। पुलिस अधिकारी ने उससे कहा कि भाग जाओ, अन्यथा गोली मार देंगे। इस पर उदयचन्द ने अपनी कमीज फाड़कर सीना खोल दिया और कहा मारो गोली।

 

पुलिस अधिकारी भी काफी गरमी में था। उसने गोली चलाने का आदेश दे दिया। पहली गोली उदयचन्द के सीने में ही लगी। खून से लथपथ वह वीर बालक धरती पर गिर पड़ा। पुलिस वाले उसे उठाकर अस्पताल ले गये, जहाँ सुबह होते-होते उस वीर ने प्राण त्याग दिये। अगले दिन उसकी शवयात्रा में पूरा शहर उमड़ पड़ा। उसके बलिदान से केवल मण्डला ही नहीं, तो पूरे मध्य प्रदेश में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन और प्रबल हो गया। जहाँ उस वीर को गोली लगी, उसे आजकल ‘उदय चौक’ कहा जाता हैं।

 

 

#हरदिनपावन

"16 अगस्त/बलिदान-दिवस"

सर्वस्व बलिदानी दम्पति  : फुलेना बाबू व तारा रानी

 

स्वाधीनता संग्राम में देश के हर भाग से लोगों ने प्राणाहुति दी। सिवान, बिहार के फुलेना बाबू तथा उनकी पत्नी श्रीमती तारा रानी ने इस यज्ञ में अपना पूरा परिवार अर्पण कर अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित कराया है।

 

अगस्त 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के लिए गांधी जी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया था। फुलेना बाबू और उनकी पत्नी तारा रानी दोनों आंदोलन में कूद पड़े। तारा रानी को राष्ट्रीयता के संस्कार विरासत में मिले थे। जब वे डेढ़ वर्ष की ही थीं, तब एक अंग्रेज गुप्तचर ने उनके पिता से मित्रता बढ़ाकर उन्हें जहर दे दिया। इस कारण तारा रानी का पालन उनके बाबा ने किया। बाबा ने देशभक्ति की कहानियां सुनाकर तारा के मन में स्वाधीनता की आग भर दी। छोटी अवस्था में ही उनका विवाह सिवान के प्रसिद्ध राजनीतिक कार्यकर्ता फुलेना प्रसाद श्रीवास्तव से हो गया। अपने स्वभाव और संस्कारों के अनुरूप देशभक्त ससुराल पाकर तारा रानी बहुत प्रसन्न हुईं।

 

फुलेना बाबू जहां एक ओर गांधी जी के भक्त थे, वहां वे क्रांतिकारियों की भी भरपूर सहायता करते थे। बुद्धिमान, स्पष्टवादी और साहसी होने के कारण फुलेना बाबू की समाज और शासन में समान प्रतिष्ठा थी। जीवन यात्रा के साथ ही स्वाधीनता संग्राम में भी पत्नी का साथ पाकर फुलेना बाबू उत्साहित हुए। दोनों एक साथ सभा-सम्मेलन व विरोध प्रदर्शन में भाग लेते थे। फुलेना बाबू जहां पुरुषों को संगठित करते थे, तो तारा रानी महिलाओं का मोर्चा संभालती थीं। इससे अंग्रेज शासन को सिवान में परेशानी होने लगी।

 

1941 में तारा रानी व्यक्तिगत सत्याग्रह कर जेल गयीं। जेल से आते ही वे ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में जुट गयीं। यद्यपि उस समय उनकी मां तथा बाबा अस्वस्थ थे; पर उनके लिए देश का महत्व परिवार से अधिक था। 16 अगस्त, 1942 को सिवान में शासन के विरुद्ध बड़ा जुलूस निकला। उसमें तारा रानी के साथ उनकी मां, बाबा और पति तीनों शामिल थे। एक साथ पूरे परिवार द्वारा जुलूस में सहभागिता के उदाहरण प्रायः कम ही मिलते हैं।

 

विरोध प्रदर्शन अपनी गति से आगे बढ़ रहा था। ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ तथा ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ के नारे लग रहे थे। सिवान पुलिस थाने पर तिरंगा झंडा फहराना आंदोलनकारियों का लक्ष्य था। फुलेना बाबू इसके लिए आगे बढ़े। पुलिस को यह अपनी सीधी हार नजर आयी। अतः उन्होंने लाठीचार्ज कर दिया। इसके बाद भी जब फुलेना बाबू बढ़ते रहे, तो पुलिस ने गोली चला दी। फुलेना बाबू के साथ ही तारा रानी की मां और बाबा को भी गोली लगी।

 

फुलेना बाबू के नौ गोलियां लगीं थीं। यह देखकर तारा रानी सिंहनी की तरह भड़क उठीं। तब तक उनका हाथ भी गोली से घायल हो गया। इसके बाद भी उन्होंने अपनी साड़ी फाड़कर पति के माथे पर बांधी और तिरंगा लेकर थाने के ऊपर चढ़ गयीं। जब वे तिरंगा फहरा कर लौटीं, तब तक उनके पति, मां और बाबा के प्राण पखेरू उड़ चुके थे। इस प्रकार कुछ ही क्षणों में उनका घर-संसार उजड़ गया। फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। वे नारे लगाकर आंदोलनकारियों को उत्साहित करती रहीं।

 

पुलिस ने तारा रानी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया, जहां से आंदोलन की समाप्ति के बाद ही वे छूट सकीं। 

 

#हरदिनपावन

"16 अगस्त/पुण्य-तिथि"

रामकृष्ण परमहंस की महासमाधि

 

श्री रामकृष्ण परमहंस का जन्म फागुन शुक्ल 2, विक्रमी सम्वत् 1893 (18 फरवरी, 1836) को कोलकाता के समीप ग्राम कामारपुकुर में हुआ था। पिता श्री खुदीराम चट्टोपाध्याय एवं माता श्रीमती चन्द्रादेवी ने अपने पुत्र का नाम गदाधर रखा था। सब उन्हें स्नेहवश 'गदाई' भी कहते थे। 

 

बचपन से ही उन्हें साधु-सन्तों का साथ तथा धर्मग्रन्थों का अध्ययन अच्छा लगता था। वे पाठशाला जाते थे; पर मन वहाँ नहीं लगता था। इसी कारण छोटी अवस्था में ही उन्हें रामायण, महाभारत आदि पौराणिक कथाएँ याद हो गयीं थीं। बड़े होने के साथ ही प्रकृति के प्रति इनका अनुराग बहुत बढ़ने लगा। प्रायः ये प्राकृतिक दृश्यों को देखकर भावसमाधि में डूब जाते थे। एक बार वे मुरमुरे खाते हुए जा रहे थे कि आकाश में काले बादलों के बीच उड़ते श्वेत बगुलों को देखकर इनकी समाधि लग गयी। ये वहीं निश्चेष्ट होकर गिर पड़े। काफी प्रयास के बाद इनकी समाधि टूटी।

 

पिता के देहान्त के बाद बड़े भाई रामकुमार इन्हें कोलकाता ले आये और हुगली नदी के तट पर स्थित रानी रासमणि द्वारा निर्मित माँ काली के मन्दिर में पुजारी नियुक्ति करा दिया। मन्दिर में आकर उनकी दशा और विचित्र हो गयी। प्रायः वे घण्टों काली माँ की मूर्त्ति के आगे बैठकर रोते रहते थे। एक बार तो वे माँ के दर्शन के लिए इतने उत्तेजित हो गये कि कटार के प्रहार से अपना जीवन ही समाप्त करने लगे; पर तभी माँ काली ने उन्हें दर्शन दिये। मन्दिर में वे कोई भेदभाव नहीं चलने देते थे; पर वहाँ भी सांसारिक बातों में डूबे रहने वालों से वे नाराज हो जाते थे।

 

एक बार तो मन्दिर की निर्मात्री रानी रासमणि को ही उन्होंने चाँटा मार दिया। क्योंकि वह माँ की मूर्त्ति के आगे बैठकर भी अपनी रियासत के बारे में ही सोच रही थी। यह देखकर कुछ लोगों ने रानी को इनके विरुद्ध भड़काया; पर रानी इनकी मनस्थिति समझती थी, अतः वह शान्त रहीं।

 

इनके भाई ने सोचा कि विवाह से इनकी दशा सुधर जाएगी; पर कोई इन्हें अपनी कन्या देने को तैयार नहीं होता था। अन्ततः इन्होंने अपने भाई को रामचन्द्र मुखोपाध्याय की पुत्री सारदा के बारे में बताया। उससे ही इनका विवाह हुआ; पर इन्होंने अपनी पत्नी को सदैव माँ के रूप में ही प्रतिष्ठित रखा।

 

मन्दिर में आने वाले भक्त माँ सारदा के प्रति भी अतीव श्रद्धा रखते थे। धन से ये बहुत दूर रहते थे। एक बार किसी ने परीक्षा लेने के लिए दरी के नीचे कुछ पैसे रख दिये; पर लेटते ही ये चिल्ला पड़े। मन्दिर के पास गाय चरा रहे ग्वाले ने एक बार गाय को छड़ी मार दी। उसके चिन्ह रामकृष्ण की पीठ पर भी उभर आये। यह एकात्मभाव देखकर लोग इन्हें परमहंस कहने लगे।

 

मन्दिर में आने वाले युवकों में से नरेन्द्र को वे बहुत प्रेम करते थे। यही आगे चलकर विवेकानन्द के रूप में प्रसिद्ध हुए। सितम्बर 1893 में शिकागो धर्मसम्मेलन में जाकर उन्होंने हिन्दू धर्म की जयकार विश्व भर में गुँजायी। उन्होंने ही ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की। इसके माध्यम से देश भर में सैकड़ों विद्यालय, चिकित्सालय तथा समाज सेवा के प्रकल्प चलाये जाते हैं।

 

एक समय ऐसा था, जब पूरे बंगाल में ईसाइयत के प्रभाव से लोगों की आस्था हिन्दुत्व से डिगने लगी थी; पर रामकृष्ण परमहंस तथा उनके शिष्यों के प्रयास से फिर से लोग हिन्दू धर्म की ओर आकृष्ट हुए। 16 अगस्त, 1886 को श्री रामकृष्ण ने महासमाधि ले ली।

TTI News

Your Own Network

CONTACT : +91 9412277500


अब ख़बरें पाएं
व्हाट्सएप पर

ऐप के लिए
क्लिक करें

ख़बरें पाएं
यूट्यूब पर