आज‬ का पंचांग

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  • Jeevan Mantra

रवींद्र कुमार

राया मथुरा वाले

|।ॐ।|

आज‬ का पंचांग

 

तिथि.........प्रथमा

वार...........मंगलवार

पक्ष... .......कृष्ण

         

नक्षत्र.........श्रावण

योग...........सौभाग्य

राहु काल.....१५:४८--१७:२९

 

मास............भाद्रपद

ऋतु.............वर्षा

 

कलि युगाब्द....५१२२

विक्रम संवत्....२०७७

 

04   अगस्त   सं  2020

आज का दिन सभी के लिए मंगलमय हो

 

#हरदिनपावन

"4 अगस्त/जन्म-दिवस"

हिमाचल के गौरव डा. यशवंत सिंह परमार

 

1947 में देश स्वतन्त्र होने के बाद 15 अपै्रल, 1948 को हिमाचल प्रदेश का एक केन्द्र शासित प्रदेश के रूप में गठन हुआ। तब इसे एक दूरदर्शी तथा राजनीतिक सूझबूझ वाले नेता व कुशल प्रशासक की आवश्यकता थी। स्वतन्त्रता सेनानी वैद्य सूरत सिंह ने डा. यशवन्त सिंह परमार की योग्यता को पहचान कर पच्छाद क्षेत्र से उन्हें विधानसभा का चुनाव लड़ाया। यद्यपि जनता की इच्छा थी कि वैद्य जी स्वयं चुनाव लड़ें। चुनाव जीतने के बाद डा0 परमार हिमाचल के प्रथम मुख्यमन्त्री बने।

 

डा. परमार का जन्म चार अगस्त, 1906 को सिरमौर रियासत के ग्राम चन्हालग में हुआ था। उन्होंने एम.ए, एल.एल.बी. तथा लखनऊ विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त कर सिरमौर रियासत में जिला एवं सत्र न्यायाधीश तथा फिर दिल्ली में अनेक महत्वपूर्ण शासकीय पदों पर काम किया।

 

पहाड़ों में सड़क, बिजली, शिक्षा, व्यापार, उद्योग आदि का अभाव ही रहता है। छोटे-छोटे खेत होने के कारण खेती भी कुछ खास नहीं होती। लोग प्रायः सेना में या मैदानी भागों में ही नौकरी करते हैं। वे हर महीने अपने घर धनादेश (मनीआर्डर) से पैसा भेजते हैं, तब परिवार के बाकी लोगों का काम चलता है। 

 

इन समस्याओं के बीच डा. परमार ने प्रदेश की शिक्षा, कृषि, बागवानी, यातायात, स्वास्थ्य आदि के क्षेत्र में सुदृढ़ नींव डाली। इससे वह भी अन्य राज्यों की तरह प्रगति के पथ पर चल पड़ा।डा. यशवन्त सिंह परमार एक दूरदर्शी राजनेता व कुशल प्रशासक तो थे ही; मनसा, वाचा, कर्मणा वे ठेठ पहाड़ी भी थे। पहाड़ी संस्कृति उनके रोम-रोम में बसी थी। 

 

नगरीय क्षेत्र में पहाड़ के लोगों का शोषण देखकर उन्होंने स्वयं को सगर्व पहाड़ी घोषित किया। प्रायः लोग पहाड़ी वस्त्र पहनने में शर्म अनुभव करते हैं; पर वे सदा लम्बी कमीज, चूड़ीदार पाजामा और लोइया आदि ही पहनते थे। उन्हें देखकर अन्य लोगों ने इसका अनुसरण किया। इस प्रकार डा. परमार ने पहाड़ी वेशभूषा को गौरव प्रदान किया।

 

डा. परमार अपनी बोलचाल में प्रायः हिमाचली भाषा-बोली का ही प्रयोग करते थे। उनका स्पष्ट मत था कि अपनी बात सब तक पहुँचानी है, तो स्थानीय बोली से अच्छी कोई चीज नहीं है। उन्होंने हिमाचली भाषा को देवनागरी में लिखने को प्रोत्साहन दिया। उनका मत था कि इससे हिन्दी को लाभ ही मिलेगा। पहाड़ी भाषा एवं लोक कलाओं के संरक्षण के लिए उन्होंने हिमाचल कला, संस्कृति व भाषा अकादमी की स्थापना की।

 

मुख्यमन्त्री बनने के बाद भी वे सदा मिट्टी से जुड़े रहे। उनके स्वागत में ग्रामीण लोग जब लोकनृत्य करतेे, तो वे भी उसमें शामिल हो जाते थे। लोकपर्व, मेले व तीज-त्योहारों आदि में वे प्रयासपूर्वक उपस्थित रहते थे। ग्रामीण क्षेत्र में वे असकली, सिड़कु, पटण्डे, लुश्के जैसे स्थानीय पकवानों की माँग करते और ग्रामीण जनों के बीच में बैठकर पत्तल पर ही भोजन करते थे। उन्होंने अपने लिए कोई सम्पत्ति एकत्र नहीं की। उनका पैतृक मकान गाँव में आज भी साधारण अवस्था में ही है।

 

सरलता, सादगी एवं परिश्रम की प्रतिमूर्ति, हिमाचल के निर्माता एवं हिमाचल गौरव जैसे सम्मानों से विभूषित डा. यशवन्त सिंह परमार ने 25 वर्ष तक राज्य की अथक सेवा की। दो मई, 1981 को उनका देहान्त हुआ।

 

#हरदिनपावन

"4 अगस्त/जन्म-दिवस"

साहस एवं मनोबल के धनी राधेश्याम जी

 

संघ के वरिष्ठ प्रचारक राधेश्याम जी का जन्म चार अगस्त, 1949 को उ.प्र. के हाथरस नगर में श्री राजबहादुर एवं श्रीमती द्रौपदी देवी के घर में हुआ था। उनके घर में पहले हलवाई का कारोबार था; पर फिर उनके पिताजी ने डेरी के व्यवसाय को अपना लिया। इस कारण तीन भाई और एक बहिन वाले इस परिवार के खानपान में सदा दूध, घी आदि की प्रचुरता रही।

 

राधेश्याम जी 1961 में हाथरस में स्वयंसेवक बने। अपने एक कक्षामित्र सतीश के साथ वे दुर्ग सायं शाखा पर जाने लगे। धीरे-धीरे संघ के प्रति उनका अनुराग बढ़ता गया। 1962, 64, 65 और 71 में उन्होंने क्रमशः प्राथमिक शिक्षा वर्ग तथा फिर तीनों संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण प्राप्त किया। कक्षा बारह तक की पढ़ाई उन्होंने हाथरस में ही पूर्ण की। इस दौरान वे सायं शाखा के मुख्यशिक्षक, मंडल कार्यवाह तथा फिर सायं कार्यवाह रहे।

 

इसके बाद तत्कालीन जिला प्रचारक ज्योति जी के आग्रह पर अलीगढ़ संघ कार्यालय पर रहकर उन्होंने बी.ए. किया। यहां वे खंड कार्यवाह और फिर सायं कार्यवाह रहे। 1972 में बी.ए. पूर्ण कर वे प्रचारक बने। दो वर्ष अलीगढ़ नगर के बाद वे बरेली नगर, जिला और फिर विभाग प्रचारक रहे। आपातकाल में वे बरेली में ही भूमिगत रहे। 1982 से 84 तक वे अलीगढ़ विभाग प्रचारक; 84 में विद्यार्थी परिषद में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के संगठन मंत्री और फिर 1989 में पूरे उ.प्र. के संगठन मंत्री बनाये गये। इस दौरान अनेक नये कार्यालय तथा बड़ी संख्या में पूर्णकालिक कार्यकर्ता बने। जिन महाविद्यालयों में कभी परिषद ने छात्रसंघ चुनाव नहीं जीता था, वहां भी भगवा लहराने लगा।

 

पर काम की इस अस्त-व्यस्तता में वे भीषण तनाव के शिकार हो गये। 1995 में मथुरा में एक कार्यकर्ता के साथ स्कूटर पर जाते समय हुए भीषण मस्तिष्काघात से वे बेहोश हो गये। कई वर्ष तक उनका इलाज हुआ। दक्षिण की तैल चिकित्सा से काफी ठीक होकर दो वर्ष उन्होंने जबलपुर में वनवासी क्षेत्र में कार्य किया। फिर बृज प्रांत में सायं शाखाओं का काम संभाला। आजकल वे पश्चिमी उ.प्र. में संघ द्वारा संचालित छात्रावासों की देखरेख कर रहे हैं। इसके साथ ही उन्होंने कई पुस्तकों का लेखन एवं संकलन भी किया है।

 

राधेश्याम जी बहुत साहसी तथा उच्च मनोबल के धनी हैं। वे स्वयं पर ईश्वर की बड़ी कृपा मानते हैं। मस्तिष्काघात के बाद उनके शरीर का एक भाग निष्क्रिय हो गया। मुंह से आवाज निकलनी भी बंद हो गयी। ऐसे में उन्होंने करुण हृदय होकर भगवान से कहा कि या तो वाणी दे दो या फिर प्राण ले लो। भगवान ने उन्हें निराश नहीं किया। एक दिन प्रातः छह बजे उन्हें लगा कि आकाश से कोई ज्योति उनकी तरफ आ रही है। उन्होंने अपना मुंह खोल दिया। वह ज्योति उनके मुंह में प्रविष्ट हो गयी। उनके मुंह से रामनाम निकला और वाणी खुल गयी। तब से वे प्रतिदिन एक घंटा पूजा और राम रक्षास्तोत्र का पाठ करते हैं।

 

1971 में अलीगढ़ में हुए दंगे में वे हिन्दुओं को रक्षा में लगे थे। उनके हाथ में गोली लगी, जबकि उनका साथी गुलशन मारा गया। 1987 में आगरा में वि.परिषद के राष्ट्रीय अधिवेशन के लिए दो माह पूर्व तक उनकी जेब खाली थी। इस पर परिषद के राष्ट्रीय संगठन मंत्री मदनदास जी स्वयं धनसंग्रह के लिए तत्पर हुए; पर राधेश्याम जी ने उन्हें मना कर दिया। अगले ही दिन प्रभु कृपा से दो ऐसे कार्यकर्ता काम में जुड़े कि हर व्यवस्था होती चली गयी।

 

स्व. माधवराव देवड़े, रतन भट्टाचार्य तथा ज्योति जी के प्रति राधेश्याम जी के मन में बहुत आदर है। यद्यपि अब वे काफी ठीक हैं; पर उस भीषण रोग का दुष्प्रभाव उनकी वाणी, चाल और स्मृति पर शेष है। ईश्वर उन्हें शीघ्र पूर्ण स्वस्थ करे, जिससे वे स्वयंस्वीकृत राष्ट्रकार्य को पूरी शक्ति से कर सकें।

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