तृतीय गृह द्वादश गृहाधीश चि. श्रीद्वारकेशलालजी - 2

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।। श्रीद्वारकेशो जयति।।

तृतीय गृह गौरवगान

प्रसंग:- 223

तृतीय गृह द्वादश गृहाधीश चि. श्रीद्वारकेशलालजी - 2

बाल्यावस्था से ही श्रीद्वारकेशलालजी की प्रतिभा, बुद्धिमत्ता और सेवारसिकता की प्रतीति करानेवाली घटनाओं का विवरण हमने कल के प्रसंग मेंं पढ़ा। आज उनके चरित्र के शेष भाग का अवलोकन करते हैं।

"सं.1973 आषाढ़ कृ.9 को मथुरा में बाल्यावस्था में ही इनके पितृचरण का देहविलय हो गया। जिससे इनकी अभ्युन्नति होने में बहुत कुछ ठेस लगी। इस समय इनकी वय 10 के लगभग थी। बाल्यावस्था होने पर भी इन्होंने श्रीप्रभु की सेवा और मंदिर की व्यवस्था पर अच्छा ध्यान देना प्रारंभ किया, जिससे इनसे आगे के लिए बड़ी-बड़ी आशाएँ बाँधी जाने लगीं। इस समय इनकी मातृश्री का धैर्य, त्याग और सावधानता प्रशंसनीय थी। वे अपनी देखरेख में समस्त कार्य इनके द्वारा कराने लगीं।"

"यज्ञोपवीत-संस्कार के अभाव में द्विजत्व-प्राप्ति न होने से यद्यपि श्रीद्वारकेशलालजी इस पीठासन पर अभिषिक्त नहीं हो सके, और इसी कारण महाराणा द्वारा भी राजकीय दस्तूर नहीं किया जा सका, फिर भी पिता के अनन्तर प्राप्त अधिकार से यह इस घर के 12वें तिलकायित माने गये।"

"इसी वर्ष माघ शु.10 के दिन द्वारकेशलालजी वैष्णव-समाज के आग्रह एवं आमंत्रण पर गुजरात का प्रदेश करने पधारे और खंभात, नार, तारापुर आदि स्थानों में जाकर वैष्णवसृष्टि को सँभाला। 'नार' गाँव में जब वैष्णवों की एक विशाल धार्मिक सभा इनकी अध्यक्षता में हो रही थी, ये स्वयं भी अपनी शक्ति के अनुसार सिद्धांतों के ऊपर भाषण देने लगे थे- अतः कुछ उपद्रवी व्यक्तियों ने इनकी बाल्य वय का अनुचित लाभ उठाकर वैष्णवों में असंतोष पैदा करना चाहा। परन्तु साथ के उपदेशक शास्त्रियों ने उन्हें ऐसा मुँहतोड़ उत्तर दिया, जिससे उन आर्यसमाजियों को विफल-प्रयत्न हो जाना पड़ा। इससे श्रीलालबावा का जय-जय-नाद होने लगा। इस प्रकार इस यात्रा द्वारा इन्होंने अपनी छोटी वय में ही कीर्ति-लाभ किया और श्रीद्वारकाधीश की सेवार्थ द्रव्य संग्रह कर ये सं.1974 के प्रारंभ में कांकरोली आये।"

"दैव के विधान से इसी वर्ष (सं.1974) इन्हें शीतला का प्रकोप हुआ, जिससे स्वास्थ्य ख़राब होते-होते अन्त में आषाढ़ कृ.14 को इनका भगवल्लीला-प्रवेश हो गया। इनके असामयिक निधन से परिवार और विशेषकर इनकी मातृश्री को जो आन्तरिक विषम वेदना उठानी पड़ी, वह अवर्णनीय थी। एक होनहार प्रतिभासंपन्न बालपीठाधीश्वर के वियोग से वैष्णव-समाज में भी शोक छा गया। इनके अनन्तर इनके भाई श्रीव्रजभूषणलालजी महाराज सं.1976 में तिलकायित-पद पर विराजमान हुए, और इनकी मातृश्री ने सब प्रकार का प्रबन्ध अपने निरीक्षण में चालू किया।"

केवल एक वर्ष के लिए तिलकायित पदासीन रहनेवाले, और केवल दस वर्ष की आयु में भूतलत्याग कर जानेवाले श्रीद्वारकेशलालजी का यथोपलब्ध चरित्रावलोकन यहाँ पूर्ण करके, कल से इनके अनुगामी और इस घर के त्रयोदश गृहाधीश श्रीव्रजभूषणलालजी के चरित्र के पूर्वार्ध का अवगाहन आरंभ करेंगें।

प्रस्तुति - श्रीधर चतुर्वेदी, पूर्व अधिकारी, राजाधिराज ठाकुर श्री द्वारकाधीश जी महाराज मंदिर, मथुरा।

 

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