तृतीय गृह त्रयोदश गृहाधीश श्रीव्रजभूषणलालजी महाराज(चतुर्थ) - 14 प्रस्तुति : श्रीधर चतुर्वेदी

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प्रस्तुति : श्रीधर चतुर्वेदी

।।श्रीद्वारकेशो जयति।।

तृतीय गृह गौरवगान

प्रसंग:- 237

तृतीय गृह त्रयोदश गृहाधीश श्रीव्रजभूषणलालजी महाराज(चतुर्थ) - 14

 

कल के प्रसंग में अपूर्ण छोड़े गये व्रजयात्रा के वृत्तांत का शेष भाग हम आज देखने जा रहे हैं।

 

"यात्रा में नित्यक्रम के अनुसार सुबह 7 बजे मुक़ाम उठता और मध्यवर्ती स्थलों में दर्शन, स्नान-आचमन, पूजन, दान आदि करते हुए मध्याह्न अथवा सायंकाल के पूर्व अपने नियत मुक़ाम पर पहुँच जाता था। रात्रि को विविध स्थलों की लीला के निदर्शक प्रसंग रासमंडली द्वारा दिखाये जाते थे, और दिन में समाज भजन-कीर्तन आदि कर समय यापन करता था। यात्रा में कई दिनों तक तो अतिशय वृष्टि होने से यात्रियों को बड़ी तकलीफ़ उठानी पड़ी, पर जल का सर्वत्र सौकर्य हो जाने से किसी प्रकार की व्याधि होने की संभावना नहीं रही।"

 

"आश्विन कृ.4 के दिन गिरिराजजी में महाराजश्री ने दान का मनोरथ किया, जिसमें गिरिराजजी के पूजन के बाद उन्हें भोग लगाया गया। इस समय सारा यात्री-समुदाय दर्शनों को उलट पड़ा, जिसके लिए कर्मचारियों तथा स्वयंसेवकों ने बड़ी सावधानी से काम लिया। आश्विन कृ.5 को चिर-प्रतीक्षित 'कुनवाड़े' का मनोरथ हुआ, जिसमें नाना प्रकार की सामग्री गिरिराज प्रभु को भोग लगाई गई। यात्रा में यही सबसे बड़ा मनोरथ हुआ, जिसके दर्शनार्थ लगभग 10000 जन-समाज एकत्रित हुआ था। इस समय इतनी अधिक सामग्री बनाई गई थी कि स्थान-संकोच के कारण भोग में एक साथ नहीं आ सकी, और भोग लगाकर यथास्थान रखवा देनी पड़ी थी। बाद में यह सब प्रसाद समस्त आगत यात्रियों में योग्यतानुसार वितरण किया गया और लगभग बारह हज़ार मनुष्यों को भोजन कराया गया।"

 

"इस प्रकार नियमित सभी स्थलों की यात्रा करते हुए कार्तिक कृ.6 के दिन यात्रा की पूर्ति और मथुरा में पुनः प्रवेश हुआ। सप्तमी के दिन मथुरापुरी की बाह्य परिक्रमा की गई, जिसमें सवारी और जुलूस का प्राधान्य रहा। इसके बाद विश्रान्त घाट पर महाराजश्री ने नियम-समाप्ति की विधि पूर्ण की। यात्रा में महाराजश्री की ओर से खूब दानपुण्य किया गया और समस्त चौबे अभ्यागत ब्राह्मणों को प्रारंभ से अन्त तक भोजन पेटिया दिया गया। इसके बाद कार्तिक कृ.8 के दिन मथुरा के विद्वानों की सभा की गई, जिसमें महाराजश्री ने उपस्थित सभी विद्वानों का दक्षिणादि से सत्कार किया। यात्रा की समाप्ति पर महाराजश्री ने कर्मचारियों को उनकी प्रबन्ध-कुशलता से प्रसन्न होकर यथायोग्य पारितोषिक और स्वर्ण-रजत पदक आदि प्रदान किये।"

 

आज के प्रसंग का यहाँ समापन करते हुए कल श्रीव्रजभूषणलालजी द्वारा की गई जगन्नाथपुरी की यात्रा, और उस यात्रा में घटित एक विशेष महत्त्वपूर्ण 

घटना पर दृष्टिपात करेंगें। आज यहाँ वह चित्र प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसमें महाराजश्री अपने अनुज भ्राता श्रीविट्ठलनाथजी के साथ विराजमान हैं।

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