तृतीय गृहाधीश श्रीव्रजेशकुमारजी महाराज कृत श्रीस्वरूपलावण्यरश्मि स्तोत्रम् - 3

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।।श्रीद्वारकेशो जयति।।

तृतीय गृह गौरवगान

प्रसंग:- 334

तृतीय गृहाधीश श्रीव्रजेशकुमारजी महाराज कृत 'श्रीस्वरूपलावण्यरश्मि स्तोत्रम्' - 3

श्रीद्वारकाधीश प्रभु के स्वरूपलावण्य के तादृश शब्दचित्र समान इस अद्भुत रचना के चार श्लोकों का रसपान कल तक हमने पूर्ण किया। इसी क्रम में आज आगे के श्लोकों का भावदर्शन करते हैं।

"भाले च भृंगललिताप्यलकावलीयं

मुक्तास्रजेन कलिता तिलकेन युक्ता।

उष्णीशमावृत शिरः शिखिपिच्छगुच्छैः

द्वारावतीश! तव तान् मनसा स्मरामः।।5।।"

दिव्य कमल समान आपके श्रीमुख पर गुंजायमान भ्रमरों का भास करानेवाली सुचिक्कन-श्याम अलकावलि में गुंफित मोतियों की लड़ के साथ आपके ललाट पर सुशोभित रत्नजटित तिलक और श्रीमस्तक पर धारण की हुई पाग पर शोभायमान मयूरपंख की चन्द्रिका। हे श्रीद्वारकेश प्रभु! आपकी इस चित्तापहारक सुषमा का हम मन में स्मरण करते रहते हैं।

"कर्णे च लोलमणिमौक्तिक कुण्डलेन

स्निग्धालकावृतमुखस्य मनोहराभाम्।

श्रीराधिकारमणबिम्ब विलासलक्ष्मीं

द्वारावतीश! तव दिव्य सुधां श्रयामः।।6।।"

हे श्रीद्वारकाधीश प्रभु! आपके कर्णद्वय में मणिमुक्ताजटित और लटकनवाले कुण्डल विराज रहे हैं, जो आपकी स्निग्ध-श्याम घुँघराली अलकलटों से आवृत होकर मुखारविन्द की शोभा में इस प्रकार वृद्धि कर रहे हैं, मानों श्रीराधिकाजी संग किये हुए रसविहार की आभा वहाँ प्रतिबिंबित हो रही है। आपकी इस दिव्य स्वरूपसुधा का हम आश्रय करते हैं।

(क्रमशः)

विशेष:- आज इन श्लोकों में श्रीप्रभु के शृंगार का जो वर्णन प्राप्त होता है उसी के अनुरूप श्रीद्वारकेश प्रभु का अति मनोहारी चित्र यहाँ प्रस्तुत है।

कल जिन श्लोकों का रसास्वादन हमें करना है उनमें शृंगार के पश्चात् श्रीप्रभु को दर्पण दिखाने की भावभावना का निरूपण हमें प्राप्त होगा।

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