महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत...

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  • Jeevan Mantra

महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 42वें अध्याय में 'गीता के माहात्म्य का वर्णन' दिया हुआ है, जो इस प्रकार है[1]- गीता के माहात्म्य का वर्णन सम्बन्ध- इस प्रकार भगवान गीता के उपदेश का उपसंहार करके अब उस उपदेश के अध्यापन और अध्ययन आदि का माहात्म्य बतलाने के लिये पहले अनाधिकारी के लक्षण बतलाकर उसे गीता का उपदेश सुनाने को निषेध करते हैं। तुझे यह गीतारूप रहस्यमय उपदेश किसी भी काल में न तो तपरहित मनुष्य से कहना चाहिये, न भक्तिरहित से और न बिना सुनने की इच्छा वाले से ही कहना चाहिये तथा जो मुझमें दोषदृष्टि रखता है, उससे तो कभी भी नहीं कहना चाहिये।[2] जो पुरुष मुझमें परमप्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त[3] गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में[4] कहेगा,[5] वह मुझको ही प्राप्त होगा- इसमें कोई संदेह नहीं है।[6] उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वी भर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं।[7] सम्बन्ध इस प्रकार उपर्युक्त दो श्लोकों में गीताशास्त्र श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भगवद्भक्‍तों को विस्तार करने का फल और माहात्म्य बतलाया ; किंतु सभी मनुष्य इस कार्य को नहीं कर सकते, इसका अधिकारी तो कोई बिरला ही होता है। इसलिये अब गीताशास्त्र के अध्ययन का माहात्म्य बतलाते हैं- जो पुरुष इस घर्ममय[8] हम दोनों के संवादरूप गीता-शास्त्रों को पढे़गा,[9] उसके द्वारा भी में ज्ञानयज्ञ से[10] पूजित होऊँगा- ऐसा मेरा मत है। सम्बंध- इस प्रकार गीताशास्त्र के अध्ययन का माहात्म्य बतलाकर, अब जो उपर्युक्त प्रकार से अध्ययन करने में असमर्थ हैं- ऐसे मनुष्य के लिये उसके श्रवण का फल बतलाते हैं- जो मनुष्य[11] श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित होकर इस गीताशास्त्र का श्रवण भी करेगा,[12] वह भी पापों से मुक्त होकर उत्तम कर्म करने वाला श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा।[13] सम्बन्ध-इस प्रकार गीताशास्त्र के कथन, पठन और श्रवण का माहात्म्य बतलाकर अब भगवान स्वयं सब कुछ जानते हुए भी अर्जुन को सचेत करने के लिये उससे उसकी स्थिति पूछते हैं- हे पार्थ! क्या इस (गीताशास्त्र) को तूने एकाग्रचित्त से श्रवण किया?[14] और हे धनंजय! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया?[15][1] अर्जुन बोले- हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशय रहित होकर स्थित हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूंगा।[16] सम्बन्ध-इस प्रकार धृतराष्ट्र के प्रश्नानुसार भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवादरूप गीताशास्त्र का वर्णन करके अब उसका उपसंहार करते हुए संजय धृतराष्ट के सामने गीता का महत्त्व प्रकट करते हैं- संजय बोले- इस प्रकार मैंने श्रीवासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अद्भुत रहस्ययुक्त, रोमांचकारक संवाद को सुना।[17] श्रीव्यास जी की कृपा से[18] दिव्य दृष्टि पाकर मैंने इस परम गोपनीय योग को[19]अर्जुन के प्रति कहते हुए स्वयं योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण से प्रत्यक्ष सुना है। हे राजन! भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस रहस्ययुक्त, कल्याणकारक और अद्भुत संवाद को पुनः-पुनः स्मरण करके में बार-बार हर्षित होता हूँ। हे राजन! श्रीहरि उस अत्यन्त विलक्षण रूप को भी पुनः-पुनः स्मरण करके मेरे चित्त में महान आश्चर्य होता है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।[20] सम्बन्ध- इस प्रकार अपनी स्थिति वर्णन करते हुए गीता के उपदेश की और भगवान के अद्भुत रूप की स्मृति का महत्त्व प्रकट करके, अब संजय धृतराष्ट्र से पाण्डवों की विजय की निश्चित सम्भावना प्रकट करते हुए इस अध्याय का उपसंहार करते हैं- हे राजन! जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन हैं, वहीं पर श्री, विजय, विभुति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मत है।[21][22] वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! अन्य बहुत से शास्त्रों का संग्रह करने की क्या आवश्यकता है। गीता का ही अच्छी तरह से गान[23] करना चाहिये; क्योकि वह स्वयं पद्मनाभ भगवान के साक्षात मुखकमल से निकली हुई है। गीता सर्वशास्त्रमयी है।[24] भगवान श्रीहरि सर्वदेवमय है। गंगा सर्वतीर्थमयी है और मनु (उनका धर्मशास्त्र) सर्व वेदमय हैं। गीता, गंगा, गायत्री और गोविन्द- इन ‘ग’ कारयुक्त चार नामों को हृदय में धारण कर लेने पर मनुष्य का फिर इस संसार में जन्म नही होता। इस गीता में छःसौ बीस श्लोक भगवान श्रीकृष्ण ने कहे हैं, सत्तावन श्लोक अर्जुन के कहे हुए है, सड़सठ श्लोक संजय ने कहे है और एक श्लोक धृतराष्ट कहा हुआ है, यह गीता का मान बताया जाता है। भारतरूपी अमृतराशि के सर्वस्व सारभूत गीता का मन्थन करके उसका सार निकालकर श्रीकृष्ण अर्जुन के मुख में डाल दिया है

 

पं बनवारी चतुर्वेदी

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