महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत...

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महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 126 में विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन हुआ है।

[1] भीष्म द्वारा भगवान विष्‍णु को प्रसन्न करने का वर्णन वैशम्पायन जी कहते हैं जनमेजय! भीष्‍म जी कहते हैं- युधिष्‍ठिर! प्राचीन काल की बात है, एक बार देवराज इन्‍द्र ने भगवान विष्‍णु से पूछा- ‘भगवन! आप किस कर्म से प्रसन्‍न होते हैं? किस प्रकार आपको सन्‍तुष्‍ट किया जा सकता है?’ सुरेन्‍द्र के इस प्रकार पूछने पर जगदीश्वर श्री हरि ने कहा। भगवान विष्‍णु बोले- इन्‍द्र! ब्राह्मणों की निन्‍दा करना मेरे साथ महान द्वेष करने से सदा मेरी भी पूजा हो जाती हैं- इसमें संशय नहीं है।

श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों को प्रतिदिन प्रणाम करना चाहिये। भोजन के पश्चात अपने दोनों पैरों की सेवा भी करे अर्थात पैरों को भली-भाँति धो ले तथा तीर्थ की मृत्‍तिका से सुदर्शन चक्र बनाकर उस पर मेरी पूजा करे और नाना प्रकार की भेंट चढ़ावे। जो ऐसा करते हैं, उन मनुष्‍यों पर मैं सन्‍तुष्‍ट होता हूँ। जो मनुष्‍य बौने ब्राह्मण और पानी से निकले हुए वराह को देखकर नमस्‍कार करता और उनकी उठायी मृत्‍तिका को मस्‍तक से लगाता है, ऐसे लोगों को कभी कोई अशुभ या पाप नहीं प्राप्‍त होता। जो मनुष्‍य अश्‍वत्‍थ वृक्ष, गोरोचना और गौ की सदा पूजा करता है, उसके द्वारा देवताओं, असुरों और मनुष्‍यों सहित सम्‍पूर्ण जगत की पूजा हो जाती है। उस रूप में उनके द्वारा की हुई पूजा को मैं यर्थाथ रूप से अपनी पूजा मानकर ग्रहण करता हूँ। जब तक ये सम्‍पूर्ण लोक प्रतिष्‍ठित हैं, तब तक यह पूजा ही मेरी पूजा है। इससे भिन्‍न दूसरे प्रकार की पूजा मेरी पूजा नहीं है। अल्‍पबुद्धि मानव अन्‍य प्रकार से मेरी व्‍यर्थ पूजा करते हैं। मैं उसे ग्रहण नहीं करता हूँ। वह पूजा मुझे संतोष प्रदान करने वाली नहीं है।

इन्‍द्र ने पूछा- भगवन! आप चक्र, दोनों पैर, बौने ब्राह्मण, वराह और उनके द्वारा उठायी हुई मिट्टी की प्रशंसा किसलिये करते हैं ? आप ही प्राणियों की सृष्‍टि करते हैं, आप ही समस्‍त प्रजा का संहार करते हैं और आप ही मनुष्‍यों सहित सम्‍पूर्ण प्राणियों की सनातन प्रकृति (मूल कारण) हैं। भीष्‍म जी कहते हैं- राजन! तब भगवान विष्‍णु ने हँसकर इस प्रकार कहा- ‘देवराज! मैंने चक्र से दैत्‍यों को मारा है। दोनों पैरों से पृथ्‍वी को आक्रान्‍त किया है।

वाराहरूप धारण करके हिरण्‍याक्ष दैत्‍य को धराशायी किया है और वामन ब्राह्मण का रूप ग्रहण करके मैंने राजा बलि को जीता है। इन्‍द्र भगवान विष्‍णु के साथ प्रश्‍नोत्‍तर इस तरह इन सब की पूजा करने से मैं महामना मनुष्‍यों पर संतुष्‍ट होता हूँ। जो मेरी पूजा करेंगे, उनका कभी पराभव नहीं होगा। ‘ब्रह्मचारी ब्राह्मण को घर पर आया देख गृहस्‍थ पुरुष ब्राह्मण को प्रथम भोजन कराये, तत्‍पश्चात स्‍वयं अवशिष्‍ट अन्‍न को ग्रहण करे तो उसका वह भोजन अमृत के समान माना गया है। ‘जो प्रात: काल की संध्‍या करके सूर्य के सम्‍मुख खड़ा होता है, उसे समस्‍त तीर्थों में स्‍नान का फल मिलता है औ वह सब पापों से छुटकारा पा जाता है। ‘तपोधनों! तुम लोगों ने जो संशय पूछा है, उसके समाधान के लिये मैंने यह सारा गूढ़ रहस्‍य तुम्‍हें बताया है। बताओं और क्‍या कहूँ’।

[1] बलदेव द्वारा गूढ़ रहस्य का वर्णन बलदेव जी ने कहा- जो मनुष्‍यों को सुख देने वाला है तथा मूर्ख मानव जिसे जानने के कारण भूतों से पीड़ित हो नाना प्रकार के कष्‍ट उठाते रहते हैं, वह परम गोपनीय विषय मैं बता रहा हूँ; उसे सुनो।[2] जो मनुष्‍य प्रतिदिन प्रात; काल उठकर गाय, घी, दही, सरसों और राई का स्‍पर्श करता है, वह पाप से मुक्‍त हो जाता है।

तपस्‍वी पुरुष आगे श्या पीछे से आने वाले सभी हिंसक जन्‍तुओं को त्‍याग देते- उन्‍हें छोड़कर दूर हट जाते हैं। इसी प्रकार संकट के समय भी वे उच्‍छिष्‍ट वस्‍तु का सदा परित्‍याग ही करते हैं। देवता बोले- मनुष्‍य जल से भरा हुआ तॉंबे का पात्र लेकर उत्‍तराभिमुख हो उपवास का नियम ले अथवा और किसी व्रत का संकल्‍प करे। जो ऐसा करता है, उसके ऊपर देवता संतुष्‍ट होते हैं और उसकी सारी मनोवांछा सिद्ध हो जाती है; परन्‍तु मंदबुद्धि मानव ऐसा न करके व्‍यर्थ दूसरे-दूसरे कार्य किया करते हैं। उपवास का संकल्‍प लेने और पूजा का उपचार समर्पित करने में ताम्रपात्र को उत्‍तम माना गया है।

पूजन-साम्रगी, भिक्षा, अर्ध्‍य तथा पितरों के लिये तिल-मिश्रित जल ताम्रपात्र के द्वारा देने चाहिये अन्‍यथा उनका फल बहुत थोड़ा होता है। यह अत्‍यन्‍त गोपनीय बात बताई गयी है। इसके अनुसार कार्य करने से देवता संतुष्‍ट होते हैं। धर्म एवं अग्नि का संवाद धर्म ने कहा- ब्राह्मण यदि राजा कर्मचारी हो, वेतन लेकर घण्‍टा बजाने का काम करता हो, दूसरों का सेवक हो, गोरक्षा एवं वाणिज्‍य व्‍यवसाय करता हो, शिल्‍पी या नट हो, मित्रद्रोही हो, वेद न पढ़ा हो अथवा शूद्र जाति की स्‍त्री का पति हो, ऐसे लोगों को किसी तरह भी देवकार्य (यज्ञ) और पितृकार्य (श्राद्ध) का अन्‍न देते हैं, उनकी अवनति होती है तथा उनके पितरों को भी तृप्‍ति नहीं होती। जिसके घर से अतिथि निराश लौट जाता है, उसके यहाँं से अतिथि का सत्‍कार न होने के कारण देवता, पितर तथा अग्नि भी निराश लौट जाते हैं।

जिसके यहाँ अतिथि का सत्‍कार नहीं होता, उस पुरुष को स्‍त्रीहत्‍यारों, गोघातकों, कृतध्‍नों, ब्रह्मघातियों और गुरुपत्‍नी गामियों के समान पाप लगता है। अग्नि बोले- जो दुर्बुद्धि मनुष्‍य लात उठाकर अससे गौ का, महाभाग ब्राह्मण का अथवा प्रज्‍वलित अग्नि का स्‍पर्श करता है, उसके दोष बता रहा हूँ, सब लोग एकाग्रचित्त होकर सुनों। ऐसे मनुष्‍य की अपकीर्ति स्‍वर्ग तक फैल जाती है। उसके पितर भयभीत हो उठते हैं। देवताओं में भी उसके प्रति भारी वैमनस्‍य हो जाता है तथा महातेजस्‍वी पावक उसके दिये हुए हविष्‍य को नहीं ग्रहण करते हैं। वह सौ जन्‍मों तक नरक में पकाया जाता है।

ऋषिगण कभी उसके उद्धार का अनुमोदन नहीं करते हैं। इसलिये अपना हित चाहने वाले श्रद्धालु पुरुष को गौओं का, महातेजस्‍वी ब्राह्मण का तथा प्रज्‍वलित अग्नि का भी कभी पैर से स्‍पर्श नहीं करना चाहिये। जो इन तीनों पर पैर उठाता है, उसे प्राप्‍त होने वाले इन दोषों का मैंने वर्णन किया है।

विश्‍वामित्र एवं गौओं द्वारा गूढ़ रहस्य का वर्णन विश्‍वामित्र बोले- देवताओं! यह धर्मसम्‍बन्‍धी परम गोपनीय रहस्‍य सुनो, जब भाद्रपदमास के कृष्‍णपक्ष में त्रयोदशी तिथि को मधा नक्षत्र का योग हो, उस समय जो मनुष्‍य दक्षिणा भिमुख हो कुतप काल में (मध्‍याह्न के बाद आठवें मुहूर्त में) जबकि हाथी की छाया पूर्व दिशा की ओर पड़ रही हो, उस छाया में ही स्थित हो पितरों के निमित्त उपहार के रूप में उत्तम अन्‍न का दान करता है, उस दान का जैसा विस्‍तृत फल बताया गया है, वह सुनो। दान करने वाले उस पुरुष ने इस जगत में तेरह वर्षों के लिये पितरों का महान श्राद्ध सम्‍पन्‍न कर दिया, ऐसा जानना चाहिये।

[2] गौओं ने कहा- पूर्वकाल में ब्रह्मलोक के भीतर वज्रधारी इन्‍द्र के यज्ञ में ‘बहुले! समंगे! अकुतोभये! क्षेमे! सखी, भूयसी’ इन नामों का उच्‍चारण करके बछड़ों सहित गौओं की स्‍तुति की गयी थी, फिर जो-जो गौएँ आकाश में स्थित थीं और जो सूर्य के मार्ग में विद्यमान थीं, नारद सहित सम्‍पूर्ण देवताओं ने उनका ‘सर्वसहा’ नाम रख दिया।[3] ये दोनों श्‍लोक मिलकर एक मन्‍त्र है। उस मन्‍त्र से जो गौओं की वन्‍दना करता है, वह पापकर्म से मुक्‍त हो जाता है। गो सेवा के फलस्‍वरूप उसे इन्‍द्रलोक की प्राप्ति होती है तथा वह चन्‍द्रमा के समान कान्ति लाभ करता है। जो पर्व के दिन गोशाला में इस देवसेवित मन्त्र का पाठ करता है, उसे न पाप होता है, न भय होता है और न शोक ही प्राप्‍त होता है।

वह सहस्‍त्र नेत्रधारी इन्‍द्र के लोक में जाता है। ब्रह्मा का संवाद भीष्‍म जी कहते हैं- राजन! तदनन्‍तर महान सौभाग्‍यशाली विश्‍वविख्‍यात वसिष्‍ठ आदि सभी सप्‍तर्षियों ने कमलयोनि ब्रह्मा जी की दक्षिणा की और स‍ब–के-सब हाथ जोड़कर उनके सामने खड़े हो गये। उनमें से ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्‍ठ वसिष्‍ठ मुनि ने समस्‍त प्राणियों के लिये हितकर तथा विशेषत: ब्राह्मण और क्षत्रिय जाति के लिये लाभदायक प्रश्‍न उपस्थित किया- भगवन! इस संसार में सदाचारी मनुष्‍य प्राय: दरिद्र एवं द्रव्‍यहीन हैं। वे किस कर्म से किस तरह यहाँ यज्ञ का फल पा सकते हैं?’ उनकी यह बात सुनकर ब्रह्मा जी ने कहा। ब्रह्मा जी बोले- महान भाग्‍यशाली सप्‍तर्षियों! तुम लोगों ने परम शुभकारक, गूढ अर्थ से युक्‍त, सूक्ष्‍म एवं मनुष्‍यों के लिये कल्‍याणकारी प्रश्‍न सामने रखा है।

तपोधनो! मनुष्‍य जिस प्रकार बिना किसी संशय के यज्ञ का फल पाता है, वह सब पूर्णरूप से बताउँगा, सुनो। पौष मास के शुक्‍ल पक्ष में जिस दिन रोहिणी नक्षत्र का योग हो, उस दिन की रात में मनुष्‍य स्‍नान आदि से शुद्ध हो एक वस्‍त्र धारण करके श्रद्धा और एकाग्रता के साथ खुले मैदान में आकाश के नीचे शयन करे और चन्‍द्रमा की किरणों का ही पान करता रहे। ऐसा करने से उसको महान यज्ञ का फल मिलता है।

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