अरे! तुम जानते नहीं हो!! मैं यहाँ का...!!!

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एक सेवानिवृत्त मुख्य अधिकारी को अपने कार्यालय जाने की जिज्ञासा हुई। वह अपने मन में बड़े-बड़े सपने लेकर जैसे कि :- मैं जब ऑफिस पहुंचूँगा तो सभी अधिकारी एवं कर्मचारी मेरा बढ़-चढ़कर स्वागत करेंगे, तत्काल अच्छा नाश्ता मंगाया जाएगा आदि-आदि। 

 

ऐसा सोचते सोचते वह अपने वाहन से कार्यालय जा रहे थे। जैसे ही गेट पर पहुंचा तो गार्ड ने रोका और कहा कि "आप अंदर जाने से पहले गाड़ी बाहर ही साइड पर लगा दें।"

 

इस पर अधिकारी भौंचक्का रह गया, और कहा कि "अरे! तुम जानते नहीं हो, मैं यहाँ का मुख्य अधिकारी रहा हूँ। गत वर्ष ही रिटायर हुआ हूँ।"

 

इस पर गार्ड बोला- "तब थे, अब नहीं हो। गाड़ी गेट के अंदर नहीं जाएगी।"

 

अधिकारी बहुत नाराज हुआ और वहाँ के अधिकारी को फोन कर गेट पर बुलाया। अधिकारी गेट पर आया और सेवानिवृत्त मुख्य अधिकारी जी को अंदर ले गया। गाड़ी भी अंदर करवाई और अपने चेंबर में जाते ही वह चेयर पर बैठ गया और चपरासी से कहा- "साहब को जो भी कार्य हो, संबंधित कर्मचारी के पास ले जाकर बता दो।"

 

चपरासी साहब को ले गया और संबंधित कर्मचारी के काउंटर पर छोड़ आया। चीफ साहब अवाक से खड़े सोचते रहे। कार्यालय आते समय जो सपने संजोए थे, वह चकनाचूर हो चुका था। पद का घमंड धड़ाम हो चुका था। 

 

वह घर पर चले आए। काफी सोचने के बाद उन्होंने अपनी डायरी में लिखा- एक विभाग के कर्मचारी शतरंज के मोहरों की तरह होते हैं। कोई राजा, कोई वजीर, कोई हाथी घोड़ा, ऊँट तो कोई पैदल बनता है। 

खेलने के बाद सभी मोहरों को एक थैले में डालकर अलग रख दिया जाता है। खेलने के बाद उसके पद का कोई महत्व नहीं रह जाता है। 

 

अतः इंसान को अपने परिवार और समाज को नहीं भूलना चाहिए। कितने भी ऊंचे पद पर पहुंच जाओ, लौटकर अपने ही समाज में आओगे।

 

समाज से संबंध सदैव बनाये रखें,  आपके कद और पद की गरिमा बनी रहेगी।

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